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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार] [११३ जरासिंघु आदिको मारकर राज्य किया। सो ऐसे कार्य करनेमें क्या सिद्धि हुई ? तथा राम-कृष्णादिकका एक स्वरूप कहते हैं, सो बीचमें इतने काल कहाँ रहे ? यदि ब्रह्ममें रहे तो अलग रहे या एक रहे ? अलग रहे तो मालूम होता है वे ब्रह्मसे अलग रहते हैं। एक रहे तो राम ही कृष्ण हुए, सीता ही रुक्मिणी हुई-इत्यादि कैसे कहते हैं ? ___तथा रामावतारमें तो सीता को मुख्य करते हैं और कृष्णावतारमें सीताको रुक्मिणी हुई कहते हैं और उसे तो प्रधान नहीं कहते, राधिकाकुमारीको मुख्य करते हैं। तथा पूछे तब कहते हैं - राधिका भक्त थी; सो निज स्त्रीको छोड़कर दासी को मुख्य करना कैसे बनता है ? तथा कृष्णके तो राधिका सहित परस्त्री सेवनके सर्व विधान हुए सो यह भक्ति कैसी की, ऐसे कार्य तो महा निंद्य हैं। तथा रुक्मिणी को छोड़कर राधाको मुख्य किया सो परस्त्री सेवनको भला जान किया होगा? तथा एक राधामें ही आसक्त नहीं हुए, अन्य गोपिका कुजा आदि अनेक परस्त्रियोंमें भी आसक्त हुआ। सो यह अवतार ऐसे ही कार्यका अधिकारी हुआ। फिर कहते हैं - लक्ष्मी उसकी स्त्री है, और धनादिकको लक्ष्मी कहते हैं; सो यह तो पृथ्वी आदिमें जिस प्रकार पाषाण, धूल हैं; उसी प्रकार रत्न, सुवर्णादि धन देखते हैं; यह अलग लक्ष्मी कौन है जिसका भर्तार नारायण है? तथा सीतादिकको मायाका स्वरूप कहते हैं, सो इनमें आसक्त हुए तब माया में आसक्त कैसे न हुए? कहाँ तक कहें, जो निरूपण करते हैं सो विरुद्ध करते हैं। परन्तु जीवोंको भोगादिककी कथा अच्छी लगती है, इसलिये उनका कहना प्रिय लगता है। ऐसे अवतार कहे हैं इनको ब्रह्मस्वरूप कहते हैं। तथा औरोंको भी ब्रह्मस्वरूप कहते हैं। एक तो महादेवको ब्रह्मस्वरूप मानते हैं, उसे योगी कहते हैं सो योग किसलिये ग्रहण किया ? तथा मृगछाला, भस्म धारण करते हैं सो किस अर्थ धारण की है ? तथा रुण्डमाला पहिनते हैं सो हड्डी को छूना भी निंद्य है उसे गलेमें किस अर्थ धारण करते हैं ? सर्पादि सहित हैं सो इसमें कौन सी बड़ाई है ? आक-धतूरा खाता है सो इसमें कौन भलाई है ? त्रिशूलादि रखता है सो किसका भय है ? तथा पार्वती को संग लिये है, परन्तु योगी होकर स्त्री रखता है सो ऐसी विपरीतता किसलिये की ? कामासक्त था तो घर ही में रहता, तथा उसने नानाप्रकार विपरीत चेष्टा की उसका प्रयोजन तो कुछ भासित नहीं होता, बावले जैसा कर्त्तव्य भासित होता है, उसे ब्रह्मस्वरूप कहते हैं। तथा कभी कृष्णको इसका सेवक कहते हैं, कभी इसको कृष्णका सेवक कहते हैं, कभी दोनोंको एक ही कहते हैं, कुछ ठिकाना नहीं है। *भगवत् स्कन्ध–१०, अ०४८, १-११ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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