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पाँचवा अधिकार ]
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उसकी इच्छासे स्वयमेव उनका संहार होता है; तो उसके सदाकाल मारनेरूप दुष्ट परिणाम ही रहा करते होंगे और अनेक जीवोंको एकसाथ मारने की इच्छा कैसे होती होगी ? तथा यदि महाप्रलय होने पर संहार करता है तो परमब्रह्मकी इच्छा होनेपर करता है या उसकी बिना इच्छा ही करता है? यदि इच्छा होने पर करता है तो परमब्रह्मके ऐसा क्रोध कैसे हुआ कि सर्व का प्रलय करने की इच्छा हुई ? क्योंकि किसी कारण बिना नाश करने की इच्छा नहीं होती और नाश करने की जो इच्छा उसी का नाम क्रोध है सो कारण बतला ?
तथा तू कहेगा
परमब्रह्मने यह खेल बनाया था, फिर दूर कर दिया, कारण कुछ भी नहीं है। तो खेल बनाने वाले को भी खेल इष्ट लगता है तब बनाता है, अनिष्ट लगता है तब दूर करता है। यदि उसे यह लोक इष्ट-अनिष्ट लगता है तो उसे लोकसे राग-द्वेष तो हुआ। ब्रह्मका स्वरूप साक्षीभूत किसलिये कहते हो; साक्षीभूत तो उसका नाम है जो स्वयमेव जैसे हो उसी प्रकार देखता - जानता रहे। यदि इष्ट-अनिष्ट मानकर उत्पन्नकरे, नष्ट करे, उसे साक्षीभूत कैसे कहें ? क्योंकि साक्षीभूत रहना और कर्त्ता - हर्त्ता होना यह दोनों परस्पर विरोधी हैं; एकको दोनों सम्भव नहीं हैं।
तथा परमब्रह्मके पहलेतो यह इच्छा हुई थी कि “मैं एक हूँ सो बहुत होऊँगा " तब बहुत हुआ। अब ऐसी इच्छा हुई होगी कि “ मैं बहुत हूँ सो कम होऊँगा" । सो जैसे कोई भोलेपनसे कार्य करके फिर उस कार्यको दूर करना चाहे, उसी प्रकार परमब्रह्मने भी बहुत होकर एक होनेकी इच्छाकी सो मालूम होता है कि बहुत होनेका कार्य किया होगा सो भोलेपनहीसे किया होगा, आगामी ज्ञानसे किया होता तो किस लिये उसे दूर करनेकी इच्छा होती ?
तथा यदि परमब्रह्मकी इच्छा बिना ही महेश संहार करता है तो यह परमब्रह्मका व ब्रह्मका विरोधी हुआ।
फिर पूछते हैं यह महेश लोकका संहार कैसे करता है ? अपने अंगोंहीसे संहार करता है कि इच्छा होने पर स्वयमेव ही संहार होता है ? यदि अपने अंगोंसे संहार करता है। तो सबका एक साथ संहार कैसे करता है ? तथा इसकी इच्छा होनेसे स्वयमेव संहार होता है; तब इच्छा तो परमब्रह्मने की थी, इसने संहार क्यों किया ?
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फिर हम पूछते हैं कि संहार होनेपर सर्वलोकमें जो जीव-अजीव थे वे कहाँ गये ? तब वह कहता है जीवोंमें जो भक्त थे वे तो ब्रह्ममें मिल गये, अन्य मायामें मिल
गये।
अब इससे पूछते हैं कि - माया ब्रह्मसे अलग रहती है कि बादमें एक हो जाती है? यदि अलग रहती है तो ब्रह्मवत् माया भी नित्य हुई, तब अद्वैत ब्रह्म नहीं रहा । और माया ब्रह्ममें एक होजाती है तो जो जीव मायामें मिले थे वे भी मायाके साथ ब्रह्म
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