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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चौथा अधिकार] [७७ यहाँ प्रश्न है कि - केवलज्ञानके बिना सर्व पदार्थ यथार्थ भासित नहीं होते और यथार्थ भासित हुए बिना यथार्थ श्रद्धान नहीं होता, तो फिर मिथ्यादर्शनका त्याग कैसे बने ? समाधान :- पदार्थों का जानना, न जानना, अन्यथा जानना तो ज्ञानावरण के अनुसार है; तथा जो प्रतीति होती है सो जानने पर ही होती है, बिना जाने प्रतीति कैसे आये - यह तो सत्य है। परन्तु जैसे (कोई) पुरुष है वह जिनसे प्रयोजन नहीं है उन्हें अन्यथा जाने या यथार्थ जाने. तथा जैसा जानता है वैसा ही माने तो उससे उसका कछ भी बिगाड़-सुधार नहीं है, उससे वह पागल या चतुर नाम नहीं पाता; तथा जिनसे प्रयोजन पाया जाता है उन्हें यदि अन्यथा जाने और वैसा ही माने तो बिगाड़ होता है, इसलिये उसे पागल कहते हैं; तथा उनको यदि यथार्थ जाने और वैसा ही माने तो सुधार होता है, इसलिये उसे चतुर कहते हैं। उसी प्रकार जीव है वह जिनसे प्रयोजन नहीं है उन्हें अन्यथा जाने या यथार्थ जाने, तथा जैसा जाने वैसा श्रद्धान करे, तो इसका कुछ बिगाड़-सुधार नहीं है, उससे मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि नाम प्राप्त नहीं करता; तथा जिनसे प्रयोजन पाया जाता है उन्हें यदि अन्यथा जाने और वैसा ही श्रद्धान करे तो बिगाड़ होता है, इसलिये उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं; तथा यदि उन्हें यथार्थ जाने और वैसा ही श्रद्धान करे तो सुधार होता है, इसलिये उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। यहाँ इतना जानना कि – अप्रयोजनभूत अथवा प्रयोजनभूत पदार्थोंका न जानना या यथार्थ-अयथार्थ जानना हो उसमें ज्ञानकी हीनाधिकता होना इतना जीव का बिगाड़सुधार है और उसका निमित्त तो ज्ञानावरण कर्म है। परन्तु वहाँ प्रयोजनभूत पदार्थोंका अन्यथा या यथार्थ श्रद्धान करने से जीव का कुछ और भी बिगाड़-सुधार होता है, इसलिये उसका निमित्त दर्शनमोह नामक कर्म है। यहाँ कोई कहे कि जैसा जाने वैसा श्रद्धान करे, इसलिये ज्ञानावरणहीके अनुसार श्रद्धान भासित होता है, यहाँ दर्शनमोह का विशेष निमित्त कैसे भासित होता है ? समाधान :- प्रयोजनभूत जीवादितत्त्वोंका श्रद्धान करने योग्य ज्ञानावरणका क्षयोपशम तो सर्व संज्ञी पंचेन्द्रियोंके हुआ है। परन्तु द्रव्यलिंगी मुनि ग्यारह अङ्ग तक पढ़ते हैं तथा ग्रेवेयकके देव अवधिज्ञानादियुक्त हैं, उनके ज्ञानावरण का क्षयोपशम बहुत होने पर भी प्रयोजनभूत जीवादिकका श्रद्धान नहीं होता; और तिर्यंचादिकको ज्ञानावरणका क्षयोपशम थोड़ा होने पर भी प्रयोजनभूत जीवादिकका श्रद्धान होता है। इसलिये जाना जाता है कि ज्ञानावरण के ही अनुसार श्रद्धान नहीं होता; कोई अन्य कर्म है और वह दर्शनमोह है। उसके उदय से जीव के मिथ्यादर्शन होता है तब प्रयोजनभूत जीवादितत्त्वोंका अन्यथा श्रद्धान करता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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