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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ७४] [मोक्षमार्गप्रकाशक समाधान :- ये कार्य रोगके उपचार थे; रोग ही नहीं है, तब उपचार क्यों करें ? इसलिये इन कार्योंका सद्भाव तो है नहीं और इन्हें रोकनेवाले कर्मोंका अभाव हुआ, इसलिये शक्ति प्रगट हुई कहते हैं। जैसे - कोई गमन करना चाहता था। उसे किसीने रोका था तब दुःखी था और जब उसकी रोक दूर हुई तब जिस कार्यके अर्थ जाना चाहता था वह कार्य नहीं रहा इसलिये गमन भी नहीं किया। वहाँ उसके गमन न करने पर भी शक्ति प्रगट हुई कही जाती है; उसी प्रकार यहाँ भी जानना। तथा उनके ज्ञानादिकी शक्तिरूप अनन्तवीर्य प्रगट पाया जाता है। तथा अघाति कर्मों में मोहसे पापप्रकृतियोंका उदय होनेपर दुःख मान रहा था, पुण्यप्रकृतियोंका उदय होनेपर सुख मान रहा था; परमार्थसे आकुलताके कारण सब दुःख ही था। अब मोहके नाशसे सर्व आकुलता दूर होने पर सर्व दुःखका नाश हुआ। तथा जिन कारणोंसे दुःख मान रहा था, वे कारण तो सर्व नष्ट हुए; और किन्हीं कारणोंसे किंचित् दुःख दूर होनेसे सुख मान रहा था सो अब मूलहीमें दुःख नहीं रहा, इसलिये उन दुःखके उपचारोंका कुछ प्रयोजन नहीं रहा कि उनसे कार्यकी सिद्धि करना चाहे। उसकी सिद्धि स्वयमेव ही हो रही है। इसीका विशेष बतलाते हैं :- वेदनीयमें असाताके उदयसे दुःखके कारण शरीरमें रोग, क्षुधादिक होते थे; अब शरीर ही नहीं, तब कहाँ हो ? तथा शरीरकी अनिष्ट अवस्थाको कारण आताप आदि थे; परन्तु अब शरीर बिना किसको कारण हो? तथा बाह्य अनिष्ट निमित्त बनते थे; परन्तु अब इनके अनिष्ट रहा ही नहीं। इस प्रकार दुःखके कारणोंका तो अभाव हुआ। तथा साताके उदयसे किंचित् दुःख मिटानेके कारण औषधि, भोजनादिक थे उनका प्रयोजन नहीं रहा है, और इष्टकार्य पराधीन नहीं रहे हैं; इसलिये बाह्यमें भी मित्रादिकको इष्ट माननेका प्रयोजन नहीं रहा, इनके द्वारा दुःख मिटाना चाहता था और इष्ट करना चाहता था; सो अब तो सम्पूर्ण दुःख नष्ट हुआ और सम्पूर्ण इष्ट प्राप्त हुआ। तथा आयुके निमित्तसे जीवन-मरण था। वहाँ मरणसे दुःख मानता था; परन्तु अविनाशी पद प्राप्त कर लिया इसलिये दुःखका कारण नहीं रहा। तथा द्रव्यप्राणोंको धारण किये कितने ही काल तक जीने-मरनेसे सुख मानता था, वहाँ भी नरक पर्यायमें दुःखकी विशेषतासे वहाँ नहीं जीना चाहता था; परन्तु अब इस सिद्धपर्यायमें द्रव्यप्राणके बिना ही अपने चैतन्यप्राणसे सदाकाल जीता है और वहाँ दुःखका लवलेश भी नहीं रहा। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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