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________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ अपने सर्व भेदोंके साथ में झलक जाती हैं। तथा वे ऐसी झलकती हैं मानो वे वर्तमान में ही मोजूद हैं, इस पर द्रष्टांत है कि जैसे कोई चित्रकार अपने मनमें भूतकाल के हो गए चौवीस तीर्थंकर व बाहुबली, भरत व रामचन्द्र, लक्ष्मण आदिकों के अनेक जीवन के दृश्य अपने मनमें वर्तमान के समान विचारकर भींत पर उनके चित्र बना देता है इस ही तरह भावि काल में होनेवाले श्री पद्मनाभ आदि तीर्थंकरो व चक्रवर्ती आदिकों को मनमें विचार कर उनके जीवन के भी दृश्यों को चित्र पर स्पष्ट लिख देता है अथवा जैसे चित्रपट को वर्तमान में देखनेवाला उन भूत व भावी चित्रों को वर्तमान के समान प्रत्यक्ष देखता है अथवा अल्पज्ञानी के विचार में किसी द्रव्य का विचार करते हुए उसकी भूत और भावी कुछ अवस्थाएं झलक जाती हैं। द्रष्टांत- सुवर्ण को देखकर उसकी खानमें रहनेवाली भूत अवस्था तथा कंकण , कुंडल बनने की भावि अवस्था मालूम हो जाती है, यदि ऐसा ज्ञान न हो तो सुवर्णका निश्चय होकर उससे आभूषण नहीं बन सके, वैद्य रोगी की भूत और भावि अवस्थाको विचार कर ही औषधि देता है। एक पाचिका स्त्री उनकी भूत मलीन अवस्था तथा भावि भात, दाल, रोटी की अवस्थाकों मनमें सोचकर ही रसोई तय्यार करती है इत्यादि अनेक दृष्टांत हैं। तैसे केवलज्ञानी अपने दिव्यज्ञान में प्रत्यक्ष रुप से सर्व द्रव्यों की सर्व पर्यायों को वर्तमान के समान स्पष्ट जानते हैं। यद्यपि केवलज्ञानी सर्वको जानते हैं तथापि उन पर ज्ञेयोंकी तरफ सन्मुख नहीं है। वह मात्र अपने शुद्ध आत्म स्वभावमें ही सन्मुख हैं और उसीके आनंदका स्वाद तन्मयी होकर ले रहे हैं अर्थात् निश्चय से अपने आपका ही वेदन कर रहै हैं, अर्थात् पूर्ण ज्ञानचेतना रुप वर्तन कर रहे हैं। इसी तरह मोक्षार्थी व साम्य भाव के अभ्यासीको भी उचित है कि यद्यपि वह अपने श्रुतज्ञान के बल से अनेक द्रव्यों की भूत और भावी पर्यायों को वर्तमानवत् जानता है तो भी एकाग्र होकर निश्चय रत्नत्रयमई अपने शुध्ध आत्मा के शुद्ध भावको तन्मयी होकर जाने तथा उसीका ही आनन्दमई स्वाद लेवे। यही स्वानुभव पूर्ण स्वानुभवका तथा पूर्ण त्रिकालवर्ती ज्ञान का बीज है। वर्तमान और भविष्यमें आत्मा को सुखी निराकुल रखनेवाला यही निजानंदके अनुभवका अभ्यास है। इसका ही प्रयत्न करना चाहिये यह तात्पर्य है। [गाथा-३७, पृष्ठ-१४७] [.] भावार्थ- यह गाथा पूर्व गाथा के कथन को स्पष्ट करती है कि जिन भूत और भावी पर्यायों को हम वर्तमान काल में प्रगटता न होनेकी अपेक्षा अविद्यमान या असत् कहते है वे ही पर्यायें केवलज्ञान में प्रत्यक्ष वर्तमान के समान झलक रही हैं। इसलिये उनको इस ज्ञानका विषय होने से विद्यमान या सत् कहते हैं। द्रव्य अपनी भूत भावी वर्तमान पर्यायों का समुदाय है। द्रव्य सत् है तो वे सर्व पर्यायें भी सत् रुप हैं। हर एक द्रव्य अपनी संभवनीय अनंत पर्यायों को पीये
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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