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________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ यही है – इसी बात को व्यवहारमें हम इस तरह कहते हैं, कि मानों आंख पदार्थों में घुस गई वे पदार्थ आंख में घुस गये। ज्ञानकी ऐसी अपूर्व महिमा जानकर हम लोगों का कर्तव्य है कि उस ज्ञान शक्ति को प्रफुल्लित करने का उपाय करें। उपाय निजात्मानुभव या शुद्धोपयोग है। इसलिये हमको निरंतर भेद विज्ञान के द्वारा शुद्ध आत्माके अनुभव की भावना करनी चाहिये और क्षणिक संकल्प विकल्पों से पराङ्मुख रहना चाहिये जिस से जगत मात्र को एक समय में देखने जानने को समर्थ जो केवलज्ञान और केवलदर्शन सो प्रगट हो जावें। [गाथा-२९, पृष्ठ-१२०] [.] विशेषार्थ- इस जगत में जैसे इन्द्रनील नामका रत्न दूध में डुबाया हुआ अपनी चमक से उस दूधको भी तिरस्कार करके वर्तता है। तैसे ज्ञान पदार्थों में वर्तता है। भाव यह है कि जैसे इन्द्रनील नाम का प्रधानरत्न कर्ता होकर अपनी नील प्रभारुपी कारण से दूधको नीला करके वर्तन करता है तैसे निश्चय रत्नत्रय स्वरुप परम सामायिक नामा संयम के द्वारा जो उत्पन्न हुआ केवलज्ञान सो आपा पर जाननेकी शक्ति रखने के कारण सर्व अज्ञान के अंधेरे को तिरस्कार करके एक समय में ही सर्व पदार्थों में ज्ञानाकार से वर्तता है - यहाँ यह मतलब है कि कारणभूत पदार्थों के कार्य जो ज्ञानाकार ज्ञान में झलकते हैं उनको उपचार से पदार्थ कहते हैं। उन पदार्थों में ज्ञान वर्तन करता है ऐसा कहते हुए भी व्यवहार से दोष नहीं है। [गाथा-३०, पृष्ठ-१२१] [ ] सामान्यार्थ- यदि वे पदार्थ केवलज्ञान में न होवें तो ज्ञान सर्वगत न होवे और जब ज्ञान सर्वगत है तो किस तरह पदार्थ ज्ञानमें स्थित न होंगे ? अवश्य होगें। विशेषार्थ- यदि वे पदार्थ केवलज्ञान में नहीं हो अर्थात् जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब झलकता है इस तरह पदार्थ अपने ज्ञानाकार को समर्पण करने के द्वारा ज्ञानमें न झलकते हों तो केवलज्ञान सर्वगत नहीं होवै। अथवा यदि व्यवहार से केवलज्ञान आपकी सम्मति में है तो व्यवहार नय से पदार्थ अर्थात् अपने ज्ञेयाकार को ज्ञान में समर्पण करनेवाले पदार्थ किस तरह नहीं केवलज्ञान में स्थित हैं - किन्तु ज्ञान में अवश्य तिष्ठते हैं ऐसा मानना होगा। यहाँ यह अभिप्राय है क्योंकि व्यवहार नय से ही जब ज्ञेयों के ज्ञानाकार को ग्रहण करने के द्वारा सर्वगत कहा जाता है इसीलिये ही तब ज्ञेयों के ज्ञानाकार समर्पण द्वारा पदार्थ भी व्यवहार से ज्ञानमें प्राप्त हैं ऐसा कह सकते हैं। पदार्थों के आकार को जब ज्ञान ग्रहण करता है तब पदार्थ अपना आकार ज्ञान को देतें हैं यह कहना होगा। [गाथा-३१, पृष्ठ-१२४ ] [.] भावार्थ- इस गाथा में आचार्य ने ज्ञान के सर्व व्यापकपने को और भी साफ किया है और केवलज्ञान की महिमा दर्शायी है। ज्ञान यद्यपि आत्माका गुण है
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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