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________________ ६८ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ जयपुर रवानिया तत्त्वचर्चा पं. फूलचंदजी सिद्धांत शास्त्री आत्मज्ञताकी अपेक्षा सर्वज्ञताका क्या रूप है ? [ प्रश्न१] [1] उन्ही केवली भगवानमें सकल ज्ञेयोंकी अपेक्षासे आरोपित सर्वज्ञता आपने स्वीकृत की है उसकी संगती किस प्रकार हो सकती है ? इनका समाधान इस प्रकार है [1] पदार्थ तीन प्रकारके हैं- शब्दरूप, अर्थरूप और ज्ञानरूप। उदाहरणार्थ ‘घट’ यह शब्द घट शब्दरूप पदार्थ है । जलधारण करनेमें समर्थ 'घट' अर्थरूप घट पदार्थ है और 'घटाकार ज्ञान' घट ज्ञानरूप घट पदार्थ हैं । इस प्रकार घट पदार्थके समान सर्व पदार्थ भी तीन प्रकारके हैं । सर्व प्रथम निश्चयनयकी अपेक्षा विचार करनेपर जब आत्मज्ञ केवली जिन केवलज्ञान के द्वारा ज्ञेयरूपसे अपने आत्माको जानते हैं तब दर्पण के समान ज्ञेयाकाररूप परिणमन स्वभावसे युक्त और तद्रूप परिणत अपनी ज्ञान पर्यायको भी अपने से अभिन्न रूपसे जानतें है, इसलिए वे केवली जिन आत्मज्ञ होने के साथ साथ स्वरूपसे सर्वज्ञ है। यही स्वाश्रित सर्वज्ञता है। इस प्रकार विश्लेषण करनेपर यह स्पष्ट रूपसे प्रतिभासित होता है कि जो आत्मज्ञता है वही सर्वज्ञता है । निश्चयनयकी अपेक्षा आत्मज्ञ कहो या [ स्वाश्रित ] सर्वज्ञ कहो दोनोंका अर्थ एक है। इसी आशयको ध्यानमें रखकर श्री अमितगति आचार्यने सामयिक पाठ में कहा है आत्माके अवलोकन करनेपर जिसमें [ आत्मामें ] वह समस्त विश्व पृथक्-पृथक् स्पष्ट रूपसे प्रतिभासित होता है। प्रतिशंका के प्रारम्भमें हमारे मत के रूपमें जो यह लिखा गया है कि केवली भगवान सब पदार्थोंको व्यवहारनयसे जानते हैं, अत: उनकी यह सर्वज्ञता असद्भुत है ऐसा आपने प्रतिपादन किया है और असद्भूत शब्दका अर्थ, आरोपित किया है' सो इस सम्बन्ध में वकतव्य यह है कि हमने उसे [ सर्वज्ञताको ] स्वाश्रित सिद्ध किया है तब ऐसी स्थितिमें सर्वज्ञमें सर्वज्ञता सद्भूत ही है, उसे असद्भूत किसी भी प्रकार नहीं माना जा सकता। ऐसा ही आगम है और यही हमारा अभिप्राय है। [1] इस प्रकार स्वरूपसे सर्वज्ञताके सम्यक् प्रकारसे घटित हो जाने पर जिस समय त्रिलोक और त्रिकालवर्ती बाह्यमें अवस्थित समस्त ज्ञेयोंकी अपेक्षा उन्हें सर्वज्ञ कहा जाता है तब उनमें सर्वज्ञता परकी अपेक्षा आरोपित की जानेके कारण उपचरित सद्भूत व्यवहारसे सर्वज्ञता कहलाती है । जिस प्रकार दीपक स्वरूपसे प्रकाशित धर्म के कारण प्रकाशक है घटादि पदार्थोंके कारण नहीं है उसी प्रकार केवली
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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