SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ પર [ ] आचासंग મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ स्याद्वाद् मंजरी श्री हेमचंद्राचार्य विरचित स्याद्वाद पदार्थों के जानने की एक दृष्टि मात्र है। स्याद्वाद स्वयं अंतिम सत्य नहीं है। यह हमें अन्तिम सत्य तक पहुंचानेके लिये केवल मार्गदर्शकका काम करता है। स्याद्वादसे केवल व्यवहार सत्य के जानने में उपस्थित होनेवाला विरोधोंका ही समन्वय किया जा सकता है, इसीलिये जैन दर्शनकारोंने स्याद्वादको व्यवहार सत्य माना है। व्यवहार सत्यके आगे भी जैन सिद्धांतमें निरपेक्ष सत्य माना गया है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दोंमें केवलज्ञानके नाम से कहा जाता है। स्याद्वादमें सम्पूर्ण पदार्थों का क्रम क्रमसे ज्ञान होता है, परन्तु केवलज्ञान सत्य प्राप्ति की वह उत्कृष्ट दशा है, जिसमें सम्पूर्ण पदार्थ और उन पदार्थों की अनन्त पर्यायों का एक साथ ज्ञान होता है। स्याद्वाद परोक्षज्ञान श्रुतज्ञानमें गर्भित होता है, इसलिये स्याद्वादसे केवल इन्द्रियजन्य पदार्थ ही जाने जा सकते है, किन्तु केवलज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है, इसलिये केवलज्ञानमें भूत भविष्य और वर्तमान सम्पूर्ण पदार्थ प्रतिभासित होते है। [ पृष्ठ-२५] आचारांगसूत्रे प्रथम श्रुतस्कंधे तृतीयाध्यायने सूत्र १२२ में कहा है – “एकं जानाति स सर्वे जानाति। य: सर्व जानाति स एकं जानाति" जो एकको जानता है, वह सर्व को जानता है और जो सर्व को जानता है, वह एक को जानता है। जिसने एक पदार्थ को सब प्रकार से देखा है, उसने सब पदार्थों को सब प्रकार से देखा है। जिसने सब पदार्थों को सब प्रकार से जान लिया है। ऐसा ही प्रवचनसार गाथा ४८ में कहा है। [अन्य. यो. - य. श्लोक-२] ] ‘विधिरुप ही तत्त्व है, प्रमेय होने से' इस अनुमान से भी पर ब्रह्मकी सिद्धि होती हैं। प्रमाण से जानने योग्य पदार्थ को प्रमेय कहते हैं, तथा प्रत्यक्ष , अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति प्रमाण विधिरुप ही हैं। कहा भी है विधिरुप पदार्थों के जानने में प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों की प्रवृत्ति, और निषेध रुप पदार्थों के जानने में प्रत्यक्ष आदि की निवृत्ति होती है"। तथा अभाव नामका कोई प्रमाण ही नहीं हैं। क्योंकि उसका कोई भी विषय नहीं। अतएव प्रत्यक्ष आदि पांचो प्रमाणोंका विषय विधि रुप ही है। यह विधिरुप ही प्रमेय है। अतएव विधिरुप ही तत्त्व है, प्रमेय होने से। जो विधि रुप नहीं है, वह प्रमेय भी नहीं है, जैसे गधे के शींग। सम्पूर्ण वस्तु तत्त्व प्रमेय है, इसलिये वह विधिरुप है। अथवा गाँव, बगीचा आदि दृश्यमान जगत् प्रतिभास में गर्भित हो जाते हैं प्रतिभास का विषय होने से जो प्रतिभास का विषय है वह प्रतिभास में गर्भित हो जाता है। जैसे प्रतिभास का स्वरुप। गाँव, बगीचे आदि [
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy