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________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ ___४८ तत्त्वानुशासन श्री नागसेनमुनि विरचित - [संघमावनी सिद्धि २i मायाह इहे छ :-] [.] अर्थ- जिस प्रकार स्फटिकके पीछे जिस रंग की उपाधि लगा दी जाती है [जिस रंगका पुष्प अथवा कोई भी चीज उसके पीछे रख दी जाती है ] वह स्फटिक उसी रंगका दिखलाई पड़ता है उसी प्रकार आत्माके स्वरुपको जाननेवाला योगी अपना आत्मा चाहे जिस अवस्थामें हो उसका जिस भाव से ध्यान करता है उस भाव से वह तन्मय [ उस भावमय ] हो जाता है। भावार्थ- जब वह योगी अरहंत के भाव से अपने आत्माका ध्यान करेगा तो उसका वह आत्मा अरहंतरुप ही दिखलाई पडेगा। [गाथा-१६१, पृष्ठ-६०] [.] अर्थ- अथवा यह नियम है कि द्रव्य निक्षेप से प्रत्येक पदार्थ के अपने अपने अतीतकालमें बीते हुए भूतपर्याय और आगामी कालमें होनेवाले भावी पर्याय सदा तदात्मक ही प्रतिभासित होते हैं यह ऐसा प्रतिभास समस्त द्रव्यों में होता है। भावार्थ- इसी नियम के अनुसार इस आत्मा का आगे होनेवाला अरहंतका पर्याय द्रव्यनिक्षेप से वर्तमान कालीन आत्मामें अरहंत रुपसे ही प्रतिभासित होगा। [गाथा-१६२] [.] अर्थ- भव्य जीवोमें आगामी कालमें होनेवाला यह अरहंत का पर्याय द्रव्यनिक्षेप से सदा ही बना रहता है इसलिये इस सज्जन आत्माको ध्यान करने में विभ्रम किस प्रकार हो सकता है। भावार्थ- कभी नहीं हो सकता। [गाथा-१६३] [.] अर्थ- अथवा यह भी मान लिया जाय कि उस ध्यान करनेवाले को एसा भ्रम हो जाता है अर्थात् अरहंत के ध्यान करनेमें तल्लीन हुए अपने आत्मा को अरहंत मानना भ्रांति है मिथ्या है तो उस अवस्थामें उस ध्यान से उसे यथेष्ट फलकी प्राप्ति भी नहीं होनी चाहिये क्योंकि जूठ मूठ के जल से कभी प्यास नहीं बुझा करती है परन्तु जैसी जैसी धारणा होती है, उसके अनुसार ध्यान करनेवाला योगियों के इस ध्यान से शांत और क्रूर आदि अनेक तरह के फल प्रगट होते हैं अत: अहँत मानना मिथ्या नहीं है। [१९४ , १९५ गाथा पृष्ठ-संख्या ६१]
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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