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________________ ૫૮૬ નાટક સમયસારના પદ मोहीमैं है मोहि सूझत नीकै।।४८।। वजी – (होड२) कहै सुगरु जो समकिती, परम उदासी होइ। सुथिर चित्त अनुभौ करै, प्रभुपद परसै सोइ।।४९।। મનની ચંચળતા સવૈયા એકત્રીસા) छिनमैं प्रवीन छिनहीमैं मायासौं मलीन, छिनकमैं दीन छिनमांहि जैसौ सक्र है। लियें दौर धूप छिन छिनमैं अनंतरूप कोलाहल ठानत मथानकौसौ तक्र है।। नटकौसौ थार किधौं हार है रहटकौसौ, धारकौसौ भौंर कि कुंभारकौसौ चक्र है। ऐसौ मन भ्रामक सुथिरु आजु कैसै होई, ओरहीको चंचल अनादिहीको वक्र है।।५० ।। મનની ચંચળતા ઉપર જ્ઞાનનો પ્રભાવ. (સવૈયા એકત્રીસા) धायौ सदा काल पै न पायौ कहूं साचौ सुख, रूपसौं विमुख दुखकूपवास बसा है। धरमको घाती अधरमको संघाती महा, कुरापाती जाकी संनिपातकीसी दसा है।। मायाकौं झपटि गहै कायासौं लपटि रहै, ___ भूल्यौ भ्रम-भीरमैं बहीरकौसौ ससा है। ऐसौ मन चंचल पताकासौ अंचल सु, ग्यानके जगेसौं निरवाण पथ धसा है।।५१ ।।
SR No.008260
Book TitleKalashamrut Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages609
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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