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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
ही, अपने को ही ग्रहण करता हूँ। आत्मा की चेतना ही एक क्रिया है इसलिए, 'मैं ग्रहण करता हूँ' अर्थात् मैं चेतता ही हूँ, चेतता हुआ ही चेतता हूँ, चेतते हुए के द्वारा ही चेतता हूँ, चेतते हुए के लिए ही चेतता हूँ, चेतते हुए से ही चेतता हूँ, चेतते हुए में ही चेतता हूँ, चेतते को ही चेतता हूँ। अथवा न तो चेतता हूँ, न चेतता हुआ चेतता हूँ, न चेतने हुए के द्वारा चेतता हूँ, न चेतते हुए के लिये चेतता हूँ, न चेतते हुए सें चेतता हूँ, न चेतते हुए में चेतता हूँ, न चेतते हुए को चेतता हूँ; किन्तु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र ( –चैतन्य मात्र) भाव हूँ ।।१३६ ।।।
(श्री समयसार जी गाथा २९७ की टीका)
* पण्णाए घित्तव्यो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयदो।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा।।२९८ ।। पण्णाए घित्तव्यो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा।।२९९ ।। कर ग्रहण प्रज्ञा से नियत, दृष्टा है सो ही मैं ही हूँ। अवशेष जो सब भाव हैं, मेरे से पर ही जानना।।२९८ ।। कर ग्रहण प्रज्ञा से नियत, ज्ञाता है सो ही मैं ही हूँ। अवशेष जो सब भाव है, मेरे से पर ही जानना।।२९९ ।।
गाथार्थ :- (प्रज्ञया) प्रज्ञा के द्वारा (गृहीतव्य) इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये कि-(यः द्रष्टा) जो देखने वाला है (सः तु) वह (निश्चयतः) निश्चय से ( अहं) मैं हूँ, (अवशेषाः) शेष (ये भावाः) जो भाव हैं (ते) वे (मम पराः) मुझसे पर हैं (इति ज्ञातव्याः) ऐसा जानना चाहिये।
(प्रज्ञया) प्रज्ञा के द्वारा (गृहीतव्यः) इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये कि-(यः ज्ञाता) जो जानने वाला है (यः ज्ञाता) जो जानने वाला है ( सः तु) वह (निश्चयतः) निश्चय से
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* आत्मा वास्तव में पर को नहीं जानता है
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