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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है जो कदाचित् हमारा ज्ञान है सो निद्राकरि मुद्रित होई जाय तथा रोगादिकरि मूर्छाकरि मुद्रित हो जाय तो समस्त लोक विद्यमान है तो हू अभावरूप सा ही भया याते हमारा लोक तो हमारा ज्ञान ही है।।१३३।। (श्री रत्नकरंड श्रावकाचार, टीकाकार पं. सदासुखदास जी काशलीवाल, गाथा ११ के भावार्थ में से ) * उपयोग उपयोग में है, क्रोधादि में कोई भी उपयोग नहीं है; और क्रोध क्रोध में ही है, उपयोग में निश्चय से क्रोध नहीं है।।१३४ ।। (श्री समयसार जी गाथा १८१, गाथार्थ) * पण्णाए पित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्तिणादव्या।।२९७।। कर ग्रहण प्रज्ञा से नियत, चेतक है सो ही मैं ही हूँ। अवशेष जो सब भाव हैं, मेरे से पर ही जानना।।२९७।। प्रज्ञा के द्वारा (आत्मा को) इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये कि जो चेतने वाला है वह निश्चय से मैं हूँ, शेष जो भाव हैं, वे मुझसे पर हैं ऐसा जानना चाहिये।।१३५ ।। ( श्री समयसार जी गाथा २९७ का गाथार्थ श्री कुंदकुंदाचार्य) * नियत स्वलक्षण का अवलम्बन करने वाली प्रज्ञा के द्वारा भिन्न किया गया जो यह चेतक (चेतने वाला, चैतन्य स्वरूप आत्मा) है सो यह मैं हूँ; और अन्य स्वलक्षणों से लक्ष्य (अर्थात् चैतन्य लक्षण के अतिरिक्त अन्य लक्षणों से जानने योग्य) जो यह शेष व्यवहार रूप भाव हैं, वे सभी चेतकत्वरूपी व्यापक के व्याप्य नहीं होते इसलिए मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं। इसलिए मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिए ही, अपने में से ही, अपने में ६२ * मैं पर को जानता हूँ-ऐसा मानने वाला दिगंबर जैन नहीं है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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