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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
नाममात्र के लिए ज्ञान है क्योंकि इसके विषयभूत सभी पदार्थों का दिड मात्र ( नाममात्र) रूप से ही (अल्पमात्र ही) ज्ञान होता है।।५३।।
(श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा ३०३ ) * उन सब विषयों मे से अपने-अपने विषयभूत एक-एक अर्थ को ही खण्डरूप विषय करने के कारण वह इन्द्रियज्ञान खण्डरूप है तथा क्रम-क्रम से केवल व्यस्तरूप (प्रकट रूप) पदार्थों में नियत विषय को ही जानता है। इसलिए वह इन्द्रियज्ञान प्रत्येक रूप भी है।।५४।।
(श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा ३०४ ) * इन्द्रियजन्य ज्ञान, व्याकुलतादि अनेक दोषों के समावेश का स्थान है यह तो रहो अर्थात् वह ज्ञान उपर्युक्त व्याकुलता आदि दोषों का स्थान है यह बात तो निश्चित ही है परन्तु उसके साथ तब तक वह ज्ञान प्रदेशचलनात्मक भी होता है।
जब तक निष्क्रिय आत्मा की कोई भी औदयिकी क्रिया होती है तथा वह प्रदेशों का हलन चलन भी कर्मोदयरूप उपाधि के बिना नहीं होता है।।५५ ।।
(श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा ३०५-३०६ ) * इन्द्रियज्ञान, केवल व्याकुलतादि उक्त दोषों का स्थान ही नहीं है किन्तु जब तक निष्क्रिय अकंपस्वरूप आत्मा के कोई न कोई औदयिकी योग की क्रिया रहती है तब तक वह इन्द्रियज्ञान प्रदेशचलनात्मक भी रहता है। क्योंकि आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंद कर्मोदयरूप उपाधि के बिना नहीं होता है।।५६ ।। ( श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध , गाथा ३०५–३०६ का
भावार्थ गुजराती में से) २३
*इन्द्रियज्ञान ज्ञेय का क्षयोपशम है"
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