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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
की उघाड़ पर्याय में सन्तोष है-सुख लगता है। तो ‘त्रिकाली' को क्यों पकड़े।।५६१।।
(श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ २८, बोल १२१) * आखिर जितना भी सुन लो, लेकिन सुख तो यहाँ से ( अन्तर में से ही शुरु होता है) यह थोड़ा सुन तो लेऊ, इसमें क्या नुकसान है ? पीछे अन्दर में जाऊँगा, वो बात ठीक नहीं है। और एक समय की ज्ञान पर्याय में विचार कर-करके भी क्या मिलेगा? त्रिकाली की तरफ जोर देने से ही क्षणिक पर्याय को एकता छूटकर सुख मिलेगा।।५६२ ।।
(श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ २८, बोल १२४)
* देवगुरु आदि निमित्त का संसारिक विषयों की अपेक्षा से फरक है। क्योंकि संसारिक विषयों तो अपनी तरफ झुकाव करने को कहते हैं। और देवादिक निमित्तों अपनी ओर झुकाव का निषेध करके आत्मा की ओर झुक जाओ-ऐसा कहते हैं। इसलिए देवादिक निमित्तों में फर्क कहने में आता है। लेकिन जो जीव अपनी ओर नहीं झुकता है, देवादिक की और ही झुके रहते हैं उन्होंने तो ये संसारिक विषयों की तरह ही यह भी विषय बना लिया। तो कोई फर्क नहीं रहा।।५६३।।
(श्री द्रव्यदृष्टि प्रकाश, भाग ३, पृष्ठ २९, बोल १२९) * जब मुनिओं अपने लिये शास्त्र में रमती बुद्धि को व्यभिचार मानते हैं, तो नीचे वालों की तो व्यभिचारी बुद्धि है ही। तो ( अज्ञानी) जीव यहाँ ऐसा लेता है कि मुनिओं तो अपने लिये व्यभिचारी माने वो ठीक है, लेकिन अपन तो थोड़ी शक्तिवाले हैं, अपने को तो शास्त्रादिका अवलम्बन ही चाहिये, ऐसे आड़ लेकर वहाँ संतोष मानकर अटक जाते हैं। प्रथम में
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* इन्द्रियज्ञान आत्मा से सर्वथा भिन्न है ।
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