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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
नहीं सूंघता है। मूर्त्त के सन्मुख होकर नहीं जानता है; परन्तु अमूर्त (आत्मा) के सन्मुख रहकर अपने को जानता है। लेकिन अपने ज्ञानस्वभाव की सामर्थ्य को नहीं जानता हुआ–पर को मैं जानता हूँ-ऐसी (विपरीत) मान्यता के कारण पर की रुचि नहीं छोड़ता।।५२२।।।
(श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, तीसरा अधिकार, पू. गुरुदेव श्री का
प्रवचन, श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. ३२, पृष्ठ २३०)
* अज्ञानी को अपने अस्तित्व की खबर नहीं है। पर को अस्तित्व की खबर नहीं है और स्व-पर भिन्नता की खबर नहीं है। उसको भेदज्ञान बिना धर्म नहीं होता है। 'मैने दूधपाक, श्रीखंड, रसगुल्ला, गुलाब जामुन को जाना'-ऐसा कहता है। तो तू पर में गया है ? पर में प्रवर्त्ता है ? तेरे में पर आते हैं ? तूने स्वाद को नहीं जाना। तेरे में तेरे स्वपरप्रकाशक ज्ञानस्वभाव को जाना है। पर को जाना-वह तो उपचार का कथन है। ज्ञान का ज्ञान है (ज्ञान ज्ञान का है)। ज्ञान में अपने को जानने का स्वभाव है। तथा स्वाद को जाना-ऐसा कहना वह उपचार है। फिर भी अज्ञानी उपचार को यथार्थ मान लेता है। वो पर चीजों के प्रतिभास के समय तुझे तेरी पर्याय जानने में आती है। ऐसी नहीं मानकर मैं पर को जानता हूँ-ऐसा मानकर अवास्तविकता (अयथार्थपना, मिथ्या अभिप्राय) उत्पन्न करता है।।५२३ ।।
(श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक, तीसरा अधिकार, पू. गुरुदेव श्री का
प्रवचन, श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. ३२, पृष्ठ २३१)
* पर को मैंने जाना-ऐसा मानकर उसमें राग करता है। मुझे यह चीज अच्छी लगती है-ऐसे राग करता है। जड़ की पर्याय यहाँ (ज्ञान में)
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* पर्याय को देखना सर्वथा बंद कर है*
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