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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
हो कि द्रव्य की ओर झुक, ध्रुव तरफ झुक - ऐसे भाषा सरल एवं संक्षिप्त हो तो भी इसमें पुरुषार्थ महान है। भले शास्त्र ज्ञान करे, धारणा - ज्ञान कर ले तो भी पर्याय को स्वलक्ष में झुकाना इसमें अनन्त पुरुषार्थ है। महान अपूर्व पुरुषार्थ है।।५०१।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ १२२ – १२३, बोल ४४६ ) * आत्मा को जानने के लिए परिणाम को सूक्ष्म कर, स्थूल परिणाम से द्रव्य जानने में नहीं आता। अज्ञानी को ग्यारह अंग का ज्ञान हो जाता है तो भी उसका उपयोग सूक्ष्म नहीं है, स्थूल हैं । आत्मा स्थूल परिणामों से जानने में नहीं आता है। सूक्ष्म ऐसे आत्मा को जानने के लिए उपयोग को सूक्ष्म करना पड़ता है । । ५०२ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १२३ - १२४, बोल ४४९ )
* भगवान की वाणी से नहीं, उसके निमित्त से होने वाले परलक्षी ज्ञान उससे भी नहीं, परन्तु स्वलक्षी जो भावश्रुतज्ञान उससे आत्मा जानने में आता है । जिस ज्ञान द्वारा आत्मा जानने में आता है वह भावश्रुतज्ञान पर की अपेक्षा बिना का है। श्रुत भी अतिरिक्त है ( नकामा हैं ) उसी तरह श्रुत से होने वाला ज्ञान भी अतिरिक्त है। मतलब कि उसकी अपेक्षा भावश्रुतज्ञान को नहीं है । ऐसे भावश्रुतज्ञान से आत्मा को जाने या केवलज्ञान से आत्मा को जाने लेकिन इस जानने में - अनुभवन में फरक नहीं है। इसलिए ज्ञान में श्रुत - उपाधिकृत भेद नहीं है। श्रुतज्ञान कहा इसलिए उसमें श्रुत-उपाधिकृत भेद नहीं है। श्रुतज्ञान कहा इसलिए उसमे श्रुत - उपाधिकृत भेद है - ऐसा नहीं है । । ५०३ ।। (श्री परमागमसार, पृष्ठ १२६, बोल ४५७ )
* भगवान की वाणी वह श्रुत है - शास्त्र है, शास्त्र पौद्गलिक है इसलिए वह ज्ञान नहीं, उपाधि है और इस श्रुत से होने वाला ज्ञान वह भी उपाधि है, क्योंकि वह श्रुत के लक्ष वाला ज्ञान परलक्षी ज्ञान है
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* ज्ञानी ऐसा मानता हैं कि- मैं आँख से रूप को नहीं देखता हूँ * Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com