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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
'चलो सखि वहाँ जइये, जहाँ अपना नहीं कोई, शरीर भखे जनावरा, मरे रोवे न कोई'
आहाहा! संग से दूर हो जा! संग में रुकने जैसा नहीं है। गिरी गुफा में अकेला चला जा! यह मार्ग अकेले का है। स्वभाव के संग में आया उसे शास्त्र संग भी नहीं रुचता है। आहाहा! अन्दर की बाते बहुत सूक्ष्म है भाई! क्या कहें।।४९९ ।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ ११९, बोल ४३३) * परिणाम को परिणाम द्वारा देख ऐसे नहीं, परन्तु परिणाम द्वारा ध्रुव को देख। पर्याय से पर को तो ना देख , पर्याय को भी ना देख किन्तु भगवान पूर्णानन्द का नाथ प्रभु उसको पर्याय से देख। उसको तू देख। अपनी दृष्टि वहाँ लगा। छह महीना ऐसा अभ्यास कर। अंतर्मुख तत्व को अंतर्मुख पर्याय द्वारा देख। अन्दर में प्रभु परमेश्वर स्वयं विराजता है। उसको एक बार छह माह तो तपास कि यह क्या है ? अन्य चपलता और चंचलता को छोड़कर, अन्दर भगवान पूर्णानन्द का नाथ सिद्ध समान प्रभु है उसको छह माह तपास ( खोज)!।।५०० ।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ १२०, बोल ४३८) * प्रश्न : आत्मा का साक्षात्कार करना है परन्तु कैसे करें ? वह पुरुषार्थ शुरू नहीं होता।
उत्तर : चैतन्य स्वभाव की महिमा कोई अचित्य है ऐसी अन्दर से महिमा आवे तो स्वसन्मुख पुरुषार्थ शुरू होवे। वास्तव में तो जो पर्याय परलक्षी है उसे स्वलक्षी करना इसमें महान पुरुषार्थ है। भाषा भले थोड़ी
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* परपदार्थ भिन्न हैं इसलिए जानने में नहीं आते*
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