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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
अहो! यह आत्म वस्तु अचिंत्य है। ज्ञायक....ज्ञायक.... ज्ञायक ही है-ऐसे विकल्प द्वारा निर्णय करे यह भी अभी परोक्ष निर्णय है। परोक्ष अर्थात् प्रत्यक्ष स्वानुभव नहीं हुआ इसलिए इसको परोक्ष कहा है। मन से बाहर का बोझा बहुत घटा देवे तब मन से अन्दर के विचार में रुके और फिर वहाँ से भी हटकर अन्दर स्वभाव की महिमा में रुके और आनन्द का अनुभव हो उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं। ऐसा वस्तु का स्वरूप है। और उसकी प्राप्ति का यह उपाय है। इसमें कहीं उलझन जैसा नहीं है। स्वभाव का आश्रय तो उलझन को टाल देता है। अभी लोग बाह्य क्रियाकांड में चढ़ गये हैं उनके पास तो मन से भी सच्चा निर्णय करने का समय नहीं है।।४९३ ।।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ १०७, बोल ३९५ ) * यह आत्मा प्रत्यक्ष है। जैसे सामने कोई चीज प्रत्यक्ष होती है ने ? वैसे ही यह आत्मा प्रत्यक्ष है। उसको देख!। ऐसा आचार्यदेव फरमाते हैं। यह शरीर है, परिवार है, धन, मकान, वैभव है ऐसा तू देखता है, परन्तु ये सब तो तेरे से अत्यन्त भिन्न परद्रव्य हैं। उनसे भिन्न यह आत्मा-स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है। उसको देख। तो तेरे मोह का तुरन्त नाश हो जायेगा।।४९४।।
( श्री परमागमसार, पृष्ठ ११२-११३, बोल ४१४) * भाई! तू सावधान रहना ! ( चेतकर रहना।) मुझे समझदारी है-इस समझ के गरमाव में-अभिमान में नही चढ़ना। विभाव के रस्ते तो अनादि से चढ़ा ही है। ग्यारह अंग के ज्ञान में, धारणा में तो सब आ गया था परन्तु शास्त्र के धारणा–ज्ञान की अधिकता की, किन्तु आत्मा की अधिकता नहीं की। धारणा ज्ञान आदि के अभिमान से बचाने
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*पर को नहीं जानना, और ज्ञायक को ही जानना और जानते रहना वो स्वभाव है।
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