________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
करना। अपने सत् का ज्ञान करने पर अतीन्द्रिय आनन्द की झलक आये बिना रहती ही नहीं है। और आनन्द नहीं आवे तो उसने अपने सत् का साँचा ज्ञान किया ही नहीं। मूल तो अन्तर में झुकना यह ही सर्व सिद्धान्त का सार है।।४९०।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ १०४, बोल ३८४ )
* यह आत्मा है वह ज्ञायक अखण्ड स्वरूप है। उसमें राग, कर्म या शरीर तो उसके नहीं है परन्तु पर्याय में खण्ड-खण्ड ज्ञान है वह भी उसका नहीं है। जड़-इन्द्रिय तो उसके नहीं हैं परन्तु भाव-इन्द्रिय और भावमन भी उसके नहीं हैं। एक-एक विषय को जानने वाली ज्ञान की पर्याय है वह खण्ड-खण्ड ज्ञान है। यह पराधीनता है, परवशता है, यह दुःख है।।४१९ ।।
( श्री परमागमसार, पृष्ठ १०४, बोल ३८५ ) * यहाँ तो जो ज्ञान आत्मा के लक्ष से होता है उसे ही ज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान इन्द्रियों के लक्ष से होता है, शास्त्र के लक्ष से होता है उसको ज्ञान नहीं कहते। त्रिकाली ज्ञायक भगवान के आश्रय बिना ग्यारह अंग के ज्ञान का भी ज्ञान नहीं कहते। यह खण्ड-खण्ड ज्ञान है वह दुःख का कारण है। चैतन्यज्ञानपिंड को ध्येय बनाकर जो ज्ञान होता है वह ज्ञान भले थोड़ा हो तो भी वह सम्यग्ज्ञान है। ऐसे सम्यग्ज्ञान बिना का खण्ड-खण्ड ज्ञान से हजारों लोगों को समझना आता हो तो भी वह ज्ञान अज्ञान है। और वह खण्ड-खण्ड ज्ञान पराधीन होने से दुःख है। परसत्तावलंबी ज्ञान को ज्ञान नहीं कहते।।४९२।।
(श्री परमागमसार, पृष्ठ १०५, बोल ३८९) * अहो! यह आत्म तत्व तो गहन है। इसको आँखे बंद करके, बाहर की पाँच इन्द्रियों का व्यापार बंद करके, मन के द्वारा विचार करे कि
२३६
* पर को जानना वो स्वभाव नहीं है।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com