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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
जावे - ऐसा तो कभी होता ही नहीं है ।। ३९० ।।
(श्री अध्यात्म प्रवचनरत्नत्रय, पृष्ठ १४०, पैराग्राफ १ )
* अहाहा...! कहते हैं- कि पर्याय को देखने की आँख सर्वथा बंद कर दे... प्रभु ! ऐसा कहकर आपको क्या कहना है ? कि शुद्ध त्रिकाली आत्मद्रव्य को देखना है ने तुझे तो वह जानना पर्याय में आता है । ( होता है) इसलिए कहते हैं कि अकेले खोले हुए द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देख ! मतलब कि पर्याय को देखने वाला ज्ञान का अंश सर्वथा बंद होते ही अन्दर की ज्ञान की पर्याय कि जो अकेले द्रव्य को ही जानती है वह प्रकट हो गई है। तो उसके द्वारा द्रव्य को देख । अब ऐसी बात सुनने को मिले नहीं इसलिए एकांत है, एकांत है - ऐसा चिल्लाते हैं। लेकिन बापू! भाई! यह सम्यक् एकांत है। भाई ! ये तेरे घर की बात है । । ३९१ । । (श्री अध्यात्म प्रवचनरत्नत्रय, पृष्ठ १४०, पैराग्राफ २ )
* गजब बात है भाई ! कहते हैं-सिद्ध को- सिद्ध पर्याय को देखने वाली पर्यायार्थिक चक्षु को बंद कर दे। अपने को तो वर्तमान में सिद्ध पर्याय नहीं है, लेकिन श्रद्धा में है कि मेरी सिद्ध पर्याय होने वाली है। तो कहते हैं कि सिद्धपर्याय को भी देखने वाली पर्यायार्थिक आँख को बंद कर दे। (पर्यायदृष्टि बंद कर दे)।
वंदित्तु सव्वसिद्धे ऐसा समयसार में है ने ? वहाँ सर्वसिद्धों को ज्ञान की पर्याय में स्थापित किया है। यहाँ कहते हैं- भगवान ! सर्वसिद्धों को जानने वाली जो पर्याय है उस पर्याय को देखने वाली पर्यायार्थिक चक्षु बंद कर दे। और अकेली खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देख ! अहो ! यह तो संतो के हृदय की कोई अपार गहराई है !! क्या कहें ? जितना गहरा गम्भीर भासता है उतना भाषा में नहीं आता । । ३९२ ।।
(श्री अध्यात्म प्रवचनरत्नत्रय, पृष्ठ १४०, पैराग्राफ ३ )
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* परमात्मा कहते हैं - हमारे लक्ष से दुर्गति होगी *
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