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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
पर्याय का उस क्षण का धर्म है। वास्तव में तो ये ज्ञेय सम्बन्धी अपनी जो ज्ञान की परिणति उसको ये जानता है। ये सब ( अज्ञानी) कहते हैं कि देव गुरु की भक्ति करो उसमें से मार्ग मिल जायेगा। यहाँ कहते हैं कि भक्ति यह राग है। ये राग जो होता है उसी समय का ज्ञान स्व
और पर को जानता हुआ परिणमे ऐसी पर्याय की ताकत से वह राग को जान रहा है। राग को जान रहा है-यह भी व्यवहार से है। निश्चय से तो राग सम्बन्धी ज्ञान और आत्मा सम्बन्धी ज्ञान को जान रहा है। मूल बात-प्रथम दशा समझ में आवे नहीं तो फिर चारित्र और व्रत कहाँ से आवे ? मूल इकाई बिना शून्य किस काम के ? ।।३६८ ।।
( श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १९, पृष्ठ ५६, पैराग्राफ ३) * ज्ञान का निश्चय से स्वप्रकाशक स्वभाव होने से, ज्ञायक इसमें जानने में ही आ रहा है। परन्तु अज्ञानी की दृष्टि ज्ञायक के ऊपर नहीं है। पर्यायबुद्धि से पुण्य-पाप का करना और साता-असाता रूप सुखदुःख को भोगना यही जीव है-ऐसा अज्ञानी मानते हैं।।३६९ ।। (श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-३, गाथा ३९ से ४३,
पृष्ठ १३, पैराग्राफ १) * वास्तव में तो सर्वज्ञपना वो आत्मज्ञपना है। केवलज्ञान की पर्याय का स्वभाव ही इतना और ऐसा है कि वह स्व और पर को सम्पूर्ण प्रकाशे! लोकालोक है तो पर्याय में उसका ज्ञान होता है ऐसा नहीं है। पर्याय का यह सहज ही स्वभाव है कि वह समस्त विश्व को जाने। स्वपरप्रकाशकपने का सामर्थ्य स्वयं से ही प्रकट हुआ है। अरिहंत देव विश्व को साक्षात् देखते हैं अर्थात् कि अपनी पर्याय में पूर्णता को देखते हैं। जैसे रात्रि के समय सरोवर के पानी में तारा, चंद्र वगैरहा दिखते हैं (प्रतिभासते हैं) वह वास्तव में तो पानी की ही अवस्था दिखायी देती है।
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* इन्द्रियज्ञान ज्ञेय बदलता रहता है*
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