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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
का ज्ञान होता है वह अपनी पर्याय में होता है। यह पर का ज्ञान पर में तो नहीं होता परन्तु पर के कारण भी नहीं होता। अपने ज्ञान की स्वच्छत्व शक्ति के कारण होता है।।३६४ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १९, पृष्ठ ५४, पैराग्राफ २) * स्व का ज्ञान होना और पर-राग का ज्ञान होना यह तो अपनी ज्ञानपरिणति का स्वपरप्रकाशक स्वभाव है। राग है तो राग का ज्ञान हुआ है-ऐसा नहीं है। परन्तु उस समय अपनी ज्ञान की पर्याय स्वयं राग के ज्ञेयाकार रूप परिणमती हुई ज्ञानानकार रूप हुई है। वह अपने से हुई है, अपने में हुई है। पर से (ज्ञेय से) नहीं। अरूपी आत्मा की तो स्वयं को और पर को जाननेवाली ज्ञातृता है। यह ज्ञातृता अपनी है, अपने से सहज है, राग से नहीं, और राग की भी नहीं। यह राग है तो वह ज्ञातृता (जानपना) है-ऐसा नहीं है। वस्तु का सहज स्वरूप ही ऐसा है। अहो! आचार्य देव ने मीठी मधुर भाषा में वस्तु भिन्न करके बताई है।।३६५।।
( श्री प्रवचनरत्नाकर , भाग-२, गाथा १९, पृष्ठ ५४, पैराग्राफ ३) * अपनी ज्ञान की पर्याय अपने को जानती है और राग को जानती है। राग है तो जाननी है- ऐसा नहीं है; परन्तु उस समय अपनी ज्ञान पर्याय ही ऐसी स्वपरप्रकाशक प्रकट होती है।।३६६ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १९, पृष्ठ ५५, पैराग्राफ १) * स्व-पर का प्रतिभास होना यह अपना सहज सामर्थ्य है। पर है तो पर का प्रकाश होता है-ऐसा नहीं है। आत्मा की तो स्व-पर को प्रकाशनारी ज्ञातृता है।।३६७।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-२, गाथा १९, पृष्ठ ५५, पैराग्राफ २) * चैतन्य बिम्ब विराजमान है ने अन्दर। उसमें-सामने की जो चीज है उस प्रकार है ( ज्ञेय के) ज्ञानरूप परिणमना , उसको जानना यह तो
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*इन्द्रियज्ञान ज्ञेय का भाव है।
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