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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
जानने रूप कर्म भी स्वयं ऐसे एक ज्ञायकपने मात्र स्वयं शुद्ध है । यह 'शुद्ध' जानने में आया पर्याय में इस प्रकार इसे शुद्ध कहने में आता है। जाने बिना शुद्ध किसको कहना ? । । ३५२ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग-१, गाथा-६, पृष्ठ १०२, पैराग्राफ ४ )
* राग द्वारा ज्ञान का अनुभव वास्तव में तो सामान्य का विशेष है, फिर भी अज्ञानी मानता है कि यह राग का विशेष है। ये दृष्टि का फेर है। समयसार गाथा १७ - १८ में आता है कि- आबाल गोपाल सबको राग, शरीर, वाणी जिस समय दिखायी देते हैं उसी समय वास्तव में ज्ञान की पर्याय जानने में आती है, लेकिन ऐसा नहीं मानना, और मुझे यह जानने में आया, राग जानने में आया यह मान्यता विपरीत है। इसी प्रकार ज्ञान पर्याय है तो सामान्य का विशेष, लेकिन ज्ञेय द्वारा ज्ञान होने पर (ज्ञेयाकार ज्ञान होने पर) अज्ञानी को भ्रम हो जाता है कि यह ज्ञेय का विशेष है, ज्ञेय का ज्ञान है। वास्तव में तो जो यह ज्ञान पर्याय है वो सामान्य ज्ञान का ही ज्ञान - विशेष है, परज्ञेय का ज्ञान नहीं है। परज्ञेय से भी नहीं है ।। ३५३ ।।
(श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग–१, गाथा–१५, पृष्ठ २६५, पैराग्राफ ३ )
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* 'जब ऐसा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाल गोपाल सबको सदाकाल स्वयं ही अनुभव में आता होने पर भी ” देखो क्या कहते हैं ? आबाल–गोपाल सबको अर्थात् छोटे से लेकर बड़े सभी जीवों को जानने में तो सदाकाल (निरन्तर ) अनुभूतिस्वरूप - ज्ञायकस्वरूप निज आत्मा ही आता है (अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा त्रिकाली का विशेषण है। ज्ञायकभाव को यहाँ अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा कहा है ! ) आबालगोपाल सबको जाननक्रिया द्वारा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा ही जानने में आ रहा है। जाननक्रिया द्वारा सबको जाननहार ही जानने में आता है। ( अज्ञानी को भी समय-समय ज्ञान की पर्याय में अपना ज्ञानमय आत्मा जो
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* इन्द्रियज्ञान दगाबाज हैं*
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