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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
परिणमन हुआ है ऐसा तीन काल में नहीं है। उस समय ज्ञान के परिणमन की लायकात से अर्थात् ज्ञेय का ज्ञान होने की अपनी लायकात से ज्ञान हुआ है।
ज्ञान ज्ञेय के आकार रूप परिणमता है वह ज्ञान की पर्याय की अपनी लायकात से परिणमता है । ज्ञेय है इसलिए परिणमता है - ऐसा नहीं है ।। ३५० ।।
(श्री प्रवचन रत्नाकर, भाग-१, पृष्ठ ९८, गाथा ६ की टीका ऊपर का प्रवचन )
* जैसे दर्पण होय उसके सामने जैसी चीज कोयला, श्रीफल, वगैरहा होय वैसी चीज वहाँ दिखे - इस रूप दर्पण परिणमा है। यह दर्पण की अवस्था है। अन्दर दिखता है वो कोयला या श्रीफल नहीं है। ये तो दर्पण की अवस्था दिखती है। वैसे ही ज्ञान की पर्याय में शरीरादि ज्ञेय दिखाई देते हैं वहाँ वह ज्ञान की पर्याय-अपनी है, वह शरीरादि पर के कारण से हुई है- ऐसा नहीं है; क्योंकि जैसा ज्ञेय ज्ञान में प्रतिभासित हुआ वैसे ही ज्ञायक का ही अनुभव करने पर ज्ञायक ही है । जाननहार जाननहारपने ही रहा है, ज्ञेयपने हुआ ही नहीं है । ज्ञेय पदार्थ का जो ज्ञान हुआ वह ज्ञान अपना अपने से ही है ज्ञेय से नहीं है । । ३५१ । । (श्री प्रवचनरत्नाकर, भाग -१, पृष्ठ १०२, पैराग्राफ ३ )
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* यह मैं जाननकार हूँ सो मैं ही हूँ, अन्य कोई नहीं है।” ज्ञेय पदार्थ का ज्ञान हुआ वहाँ जाननहार सो मैं हूँ, ज्ञेय वो मैं नही हूँ ऐसा अपने को अपना अभेदरूप अनुभव हुआ ! तब इस जाननरूप क्रिया का कर्ता स्वयं ही है और जिसको जाना वह कर्म भी स्वयं ही है। ज्ञान की पर्याय ने त्रिकाली द्रव्य को जाना तब ज्ञेय को भी साथ में जाना ? तो ज्ञेय को नहीं, स्वयं की पर्याय को स्वयं ने जाना है। जानन क्रिया का कर्ता भी स्वयं और
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* इन्द्रियज्ञान की रुचि अर्थात् इन्द्रिय की रुचि *
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