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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
देखो, क्या कहा ? कि जगत के जो ज्ञेय हैं, उनको जाननेरूप जो जाननक्रिया वह ज्ञानस्वरूप है, ज्ञेयस्वरूप नहीं है। ज्ञान की पर्याय में छह द्रव्य जानने में आते हैं, सो वास्तव में छह द्रव्य जानने में नहीं आते, परन्तु छह द्रव्य सम्बन्धी अपना जो ज्ञान है वह जानने में आता है और वह वास्तव में आत्मा का ज्ञेय है। परज्ञेय जानने में आता है ऐसा कहना यह तो व्यवहार है। ज्ञेय सम्बन्धी अपने ज्ञान की पर्याय जाननरूप जो हुई वह अपना ज्ञेय है, परन्तु परज्ञेय अपना नहीं, क्योंकि अपने में अपनी ज्ञानपर्याय का अस्तित्व है (पर का नहीं)।
अहाहा...! छह द्रव्य को जाननेवाली ज्ञान की पर्याय अपनी है, उसको छह द्रव्य का ज्ञान कहना वह व्यवहार है; ज्ञेय-ज्ञान ज्ञेय का नहीं है। अपितु ज्ञान का ज्ञान है, जाननक्रियारूप भाव ज्ञानस्वरूप है। पण्डित जयचंदजी यही स्पष्ट करते हैं_ 'और वह स्वयं ही निम्न प्रकार ज्ञेयरूप है। बाह्य ज्ञेय ज्ञान से भिन्न हैं, वे ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होते, ज्ञेयों के आकार की झलक ज्ञान में पड़ने से ज्ञान ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता हैं; परन्तु यह ज्ञान की ही कल्लोलें ( तरंगें) हैं। वे कल्लोलें ही-ज्ञानतरंगें ही ज्ञान के द्वारा ज्ञात होती हैं।'
अहाहा...! देखो, बाह्य ज्ञेयों-रागादिक से लेकर छहों द्रव्य अपने आत्मा से (अपने द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों से) भिन्न हैं। यदि वे भिन्न न हों तो एक हो जायें, परन्तु ऐसा कभी बनता ही नहीं है, ऐसा है ही नहीं।
राग का ज्ञान हो तो भी राग कहीं ज्ञान की पर्याय में आता नहीं है। केवली को लोकलोक का ज्ञान हुआ तो लोकालोक कहीं ज्ञान में घुस गया
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* पर्याय को देखना सर्वथा बंद कर दे*
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