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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
शास्त्र,
अहाहा...! यहाँ क्या कहते है ? कि परज्ञेय ( परपदार्थों - देव- -- गुरुपंचपरमेष्ठी और व्यवहार रत्नत्रय आदि ज्ञेय ) मैं ज्ञान, और मैं ज्ञाता-ऐसा संबंध होना तो दूर रहो; पर मैं ज्ञेय, मैं ज्ञान और मैं ज्ञाता- ऐसे तीन भेदरूप भी मैं नहीं हूँ । ये तीनों मैं एक ही हूँ। देखो, यह स्वानुभव की दशा ! ज्ञान - ज्ञाता - ज्ञेय ऐसे भेदों से भेदरूप नहीं होता हुआ ऐसा अभेद चिन्मात्र मैं आत्मा हूँ। मैं ज्ञेय हूँ, मैं ज्ञान हूँ, मैं ज्ञाता हूँ ऐसे तीन अभेद चिन्मात्र मैं आत्मा हूँ। मैं ज्ञेय हूँ, मैं ज्ञान हूँ, मैं ज्ञाता हूँ ऐसे तीन भेद पैदा होवे, वह तो राग - विकल्प है, लेकिन वस्तु और वस्तु की दृष्टि में ऐसे भेद हैं नहीं, सब अभेद एक हैं।
भाई ! तुझमें तेरा होनापना ( अस्तित्व ) कैसा है, उसकी तुझे खबर नहीं ! तीन लोक के द्रव्यों-द्रव्य-गुण- पर्यायें त्रिकालवर्ती जो अनंतानंत हैं उन सभी को जाननहारी तेरी ज्ञान की दशा वह सचमुच तेरा ज्ञेय है। वह दशा अकेली नहीं लेकिन तेरा द्रव्य - गुण - पर्याय वो सभी ज्ञेय हैं। अहाहा...! वह समस्त का ( अपना ) ज्ञान, वह ज्ञान; वह समस्त (स्वयं) ज्ञेय और स्वयं ज्ञाता-यह तीनों वस्तु एक ही हैं, तीन भेद नहीं हैं। ऐसी सूक्ष्म बात है। ज्ञान - ज्ञाता-ज्ञेय तीन भावों सहित वस्तुमात्र एक-अभेद है।
कलश २७१ के भावार्थ पर प्रवचन
अहाहा.....! बहुत सरस भावार्थ है। वस्तु के मर्म का मक्खन है। कहते हैं-अपने द्रव्य पर दृष्टि देते ही स्वयं ही ज्ञाता, स्वयं ही ज्ञान और स्वयं ही ज्ञेय है - ऐसी अनुभूति होती है। छह द्रव्य ज्ञेय, मै ज्ञान और मैं ज्ञाता ऐसी अनुभूति नहीं होती, क्योंकि परमार्थ से पर के साथ ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है ही नहीं-ऐसी बात है।
कहते हैं-' ज्ञानमात्र भाव जाननक्रियारूप होने से ज्ञानस्वरूप है 1
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* पर को जानने से ज्ञान भी नहीं, सुख भी नहीं *
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