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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
जानने पर जो आनन्द का स्वाद आता है वह स्वाद इन्द्रियज्ञान से नहीं आता, अत: इन्द्रियज्ञान आत्मा नहीं है।।३१६ ।।
(ज्ञानगोष्ठी, प्रश्न २९०, आत्मधर्म अंक ४१२,
फरवरी १९७८, पृष्ठ ३७) * प्रश्न : भगवान की वाणी से भी आत्मा जानने में नहीं आता तो फिर आप की बतलायें कि वह आत्मा कैसे जानने में आता है ? ___उत्तर : भगवान की वाणी श्रुत है-शास्त्र है, और शास्त्र पौद्गलिक है, अतः वह ज्ञान नहीं हैं-उपाधि है तथा उस श्रुत से होने वाला ज्ञान भी उपाधि है क्योंकि उस श्रुत के लक्ष वाला ज्ञान परलक्षी ज्ञान है। और परलक्ष से उत्पन्न होने वाला ज्ञान स्व को नहीं जान सकता! अतः उसको भी श्रुत के समान उपाधि कहा है। जिस प्रकार सूत्र-शास्त्र ज्ञान नहीं है अतिरिक्त चीज है-उपाधि है; उसी प्रकार उस श्रुत के लक्ष्य से होने वाला ज्ञान भी अतिरिक्त चीज है-उपाधि है। अहाहा! क्या वीतराग की शैली है ? परलक्षी ज्ञान को भी श्रुत के समान उपाधि कहा है। स्वज्ञानरूप ज्ञप्तिक्रिया से आत्मा जानने में आता है, परन्तु भगवान की वाणी से आत्मा जानने में नहीं आता है।।३१७।।
(ज्ञानगोष्ठी, प्रश्न २९२, आत्मधर्म अंक ४२५ ,
मार्च १९७९, पृष्ठ २६ ) * प्रश्न : ग्यारह अंग और नव पूर्व के ज्ञान वाले को पंच महाव्रत का पालन करने पर भी आत्मज्ञान करने में उसे और क्या बाकी रह गया है ?
उत्तर : ग्यारह अंग का ज्ञान तथा पंच महाव्रत का पालन करने पर भी उसे भगवान आत्मा का अखण्ड ज्ञान करना बाकी रह गया। खण्डखण्ड इन्द्रिय ज्ञान-ग्यारह अंग का किया था, वह खण्ड-खण्ड ज्ञान परवश होने से दुःख का कारण था। अखण्ड आत्मा का ज्ञान किये बिना
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* इन्द्रियज्ञान जिसको जाने उसको अपना मानता है*
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