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पाठ दूसरा
पाप
पुत्र – पिताजी, लोग कहते हैं कि लोभ पाप का बाप है, तो यह लोभ सब
से बड़ा पाप होता होगा? पिता – नहीं बेटा, सबसे बड़ा पाप तो मिथ्यात्व हैं, जिसके वश होकर जीव
घोर पाप करता हैं। पुत्र - पाँच पापों में तो इसका नाम है नहीं। उनके नाम तो मुझे याद हैं -
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह। पिता – ठीक है बेटा! पर लोभ का नाम भी तो पापों में नहीं है किन्तु उसके
वश होकर लोग पाप करते हैं, इसलिए तो उसे पाप का बाप कहा जाता हैं; उसी प्रकार मिथ्यात्व तो ऐसा भयंकर पाप है कि जिसके छूटे
बिना संसार-भ्रमण छूटता ही नहीं। पुत्र - ऐसा क्यों ? पिता – उल्टी मान्यता का नाम ही तो मिथ्यात्व है। जब तक मान्यता ही
उल्टी रहेगी तब तक जीव पाप छोड़ेगा कैसे ? पुत्र – तो, सही बात समझना ही मिथ्यात्व छोड़ना है ? पिता- हाँ, अपनी आत्मा को सही समझ लेना ही मिथ्यात्व छोड़ना है। जब
यह जीव अपनी प्रात्मा को पहिचान लेगा तो और पाप भी छोड़ने लगेगा।
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