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चारित्रपाहुड]
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इन दोषोंके होने पर अन्य भी मल प्रगट होते हैं, वे तीन मूढ़ताएँ हैं----
१ देवमूढ़ता, २ पाखण्डमूढ़ता, ३ लोकमूढ़ता। किसी वर की इच्छा से सरागी देवों की उपासना करना उनकी पाषाणादि में स्थापना करके पूजना देवमूढ़ता है। ढ़ोंगी गुरुओंमें मूढ़ता-परिग्रह, आरंभ. हिंसादि सहित पाखण्डी (ढोंगी) भेषधारियोंका सत्कार, पुरस्कार करना पाखण्डीमूढ़ता है। लोकमूढ़ता अन्य मतवालोंके उपदेशसे तथा स्वयं ही बिना विचारे कुछ प्रवृत्ति करने लग जाय वह लोकमूढ़ता है, जैसे सूर्य के अर्घ देना, ग्रहण में स्नान करना, संक्रांति में दान करना, अग्निका सत्कार करना, देहली, घर, कुआ पूजना, गायकी पूंछको नमस्कार करना, गायके मूत्रको पीना, रत्न, घोडा आदि वाहन, पृथ्वी, वृक्ष, शस्त्र, पर्वत आदिककी सेवा-पूजा करना, नदी-समुद्रको तीर्थ मानकर उनमें स्नान करना, पर्वतसे गिरना, अग्नि में प्रवेश करना इत्यादि जानना।
छह अनायतन हैं---कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र और इनके भक्त--ऐसे छह हैं, इनको धर्म स्थान जानकर इनकी मनसे प्रशंसा करना, वचन से सराहना करना, काय से वंदना करना। ये धर्मके स्थान नहीं हैं इसलिये इनको अनायतन कहते हैं। जाति, लाभ, कुल , रूप, तप, बल, विद्या, ऐश्वर्य इनका गर्व करना आठ मद हैं। जाति माता पक्ष है, लाभ धनादिक कर्मके उदय के आश्रय है. कल पिता पक्ष है. रूप कर्मोदयाश्रित है. तप अपने स्वरूपको साधने का साधन है, बल कर्मोदयाश्रित है, विद्या कर्मके क्षयोपशमाश्रित है, ऐश्वर्य कर्मोदयाश्रित है, इनका गर्व क्या? परद्रव्यके निमित्तसे होने वाले का गर्व करना सम्यक्त्वका अभाव बताता है अथवा मलिनता करता है। इसप्रकार ये पच्चीस, सम्यक्त्वके मल दोष हैं, इनका त्याग करने पर सम्यक्त्व शुद्ध होता है, वही सम्यक्त्वाचरण चारित्र का अंग है।।६।।
आगे शंकादि दोष दूर होने पर सम्यक्त्वके आठ अंग प्रगट होते हैं उनको कहते हैं:--
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