SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ५०] / अष्टपाहुड इसप्रकार जितनी संसार की अवस्था और यह मुक्त अवस्था इसप्रकार भेदरूप आत्माका निरूपण है वह भी व्यवहार नयका विषय है, इसको अध्यात्मशास्त्रमें अभूतार्थ असत्यार्थ नामसे कहकर वर्णन किया है, क्योंकि शुद्ध आत्मा में सहयोगजनित अवस्था हो सो तो असत्यार्थ ही है, कुछ शुद्ध वस्तुका तो यह स्वभाव नहीं है इसलिये असत्य ही है। जो निमित्त से अवस्था हुई वह भी आत्मा ही का परिणाम है, जो आत्मा का परिणाम है वह आत्मामें ही है, इसलिये कथंचित् इसको सत्य भी कहते हैं, परन्तु जब तक भेदज्ञान नहीं होता है तब तक ही यह दृष्टि है, भेदज्ञान होने पर जैसे है वैसा ही जानता है। जो द्रव्यरूप पुद्गल कर्म हैं वे आत्मा से भिन्न ही हैं, उनसे शरीरादिका संयोग है वह आत्मासे प्रगट ही भिन्न है, इनको आत्मा का कहते हैं सो वह व्यवहार प्रसिद्ध है ही, इसको असत्यार्थ या उपचार कहते हैं। यहाँ कर्मके संयोगजनित भाव हैं वे सब निमित्ताश्रित व्यवहार के विषय हैं और उपदेश अपेक्षा इसको प्रयोजनाश्रित भी कहते हैं, इसप्रकार निश्चयव्यवहारका संक्षेप है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको मोक्षमार्ग कहा, यहाँ ऐसे समझना कि ये तीनों एक आत्मा ही के भाव हैं. इसप्रकार इनरूप आत्माही का अनुभव हो सो निश्चय मोक्षमार्ग है, इनमें भी जबतक अनुभव की साक्षात् पूर्णता नहीं हो तबतक एकदेशरूप होता है उसको कथंचित् सर्वदेशरूप कहकर कहना व्यवहार है और एकदेश नाम से कहना निश्चय है। दर्शन, ज्ञान, चारित्रको भेदरूप कहकर मोक्षमार्ग कहे तथा इनके बाह्य परद्रव्य स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव निमित्त हैं उनको दर्शन, ज्ञान, चारित्रके नामसे कहे वह व्यवहार है। देव, गुरु, शास्त्रकी श्रद्धाको सम्यग्दर्शन कहते हैं, जीवादिक तत्त्वोंकी श्रद्धाको सम्यग्दर्शन कहते हैं। शास्त्रके ज्ञान अर्थात् जीवादिक पदार्थों के ज्ञान को ज्ञान कहते हैं इत्यादि। पांच महाव्रत, पांच समिति, तीव गुप्तिरूप प्रवृत्तिको चारित्र कहते हैं। बारह प्रकारके तपको तप कहते हैं। ऐसे भेदरूप तथा परद्रव्यके आलम्बनरूप प्रवृत्तियाँ सब अध्यात्मशास्त्रकी अपेक्षा व्यवहारके नामसे कही जाती है क्योंकि वस्तुके नाम से कहना वह भी व्यवहार है। अध्यात्म शास्त्रमें इसप्रकार भी वर्णन है कि वस्तु अनन्त धर्मरूप है इसलिये सामान्यविशेषरूपसे तथा द्रव्य-पर्याय से वर्णन करते हैं। द्रव्यमात्र कहना तथा पर्यायमात्र कहना व्यवहार का विषय है। द्रव्यका भी तथा पर्याय का भी निषेध करके वचन-अगोचर कहना निश्चयनयका विषय है। जो द्रव्यरूप है वही पर्यायरूप है इसप्रकार दोनों को ही प्रधान करके कहना प्रमाण का विषय है, इसका उदाहरण इसप्रकार है-- Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy