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सूत्रपाहुड]
[४५ पाँचवां वैनयिक नामका प्रकीर्णक है, इसमें पाँच प्रकारके विनयका वर्णन है। छठा कृतिकर्म के नामका प्रकीर्णक है, इसमें अरिहंत आदिकी वंदनाकी क्रियाका वर्णन है। सातवाँ दशवैकालिक नामका प्रकीर्णक है, इसमें मुनिका आचार, आहारकी शुद्धता आदिका वर्णन है। आठवाँ उत्तराध्ययन नामका प्रकीर्णक है। इसमें परीषह-उपसर्गको सहनेके विधानका वर्णन है।
नवमाँ कल्पव्यवहार नामका प्रकीर्णक है, इसमें मुनिके योग्य आचरण और अयोग्य सेवनके प्रायश्चितोंका वर्णन है। दसवाँ कल्पाकल्प नामक प्रकीर्णक है, इसमें मुनिको यह योग्य है यह अयोग्य है ऐसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा वर्णन है। ग्यारहवाँ महाकल्प नामका प्रकीर्णक है, इसमें जिनकल्पी मुनिके प्रतिमायोग, त्रिकालयोगका प्ररूपण है तथा स्थविरकल्पी मुनिओंकी प्रवृत्तिका वर्णन है। बारहवाँ पुंडरीक नामका प्रकीर्णक है, इसमें चार प्रकारके देवोमें उत्पन्न होनेके कारणोंका वर्णन है। तेरहवाँ महापंडरीक नामका प्रकीर्णक है. इसमें इन्द्रादिक बड़ी ऋद्धिके धारक देवोंमें उत्पन्न होनेके कारणोंका प्ररूपण है। चौदहवाँ निषिद्धिका नामक प्रकीर्णक है, इसमें अनेक प्रकारके दोषोकी शुद्धताके निमित्त प्रायश्चितोंका प्ररूपण है, यह प्रायश्चित शास्त्र है, इसका नाम निसितिका भी है। इसप्रकार अंगबाह्यश्रुत चौदह प्रकारका है।
पूर्वोकी उत्पत्ति पर्यायसमास ज्ञानसे लगाकर पूर्वज्ञान पर्यंत बीस भेद हैं इनका विशेष वर्णन, श्रुतज्ञान का वर्णन गोम्मटसार नामके ग्रंथमें विस्तार पूर्वक है वहाँ से जानना ।। २।।
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