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दर्शनपाहुड]
[३७
आगे कर्मोंका नाश करके मोक्ष प्राप्त करते हैं ऐसा कहते हैं:
बारसविहतवजुत्ता कम्मं खविऊण विहिबलेण सं। वोसट्टचत्तदेहा णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता।। ३६ ।।
द्वादशविधतषोयुक्ताः कर्मक्षपयित्वा विधिबलेन स्वीयम्। व्युत्सर्गत्यक्तदेहा निर्वाणमनुत्तर प्राप्ताः।।३६ ।।
अर्थ:--जो बारह प्रकारके तप से संयुक्त होते हुए विधिके बलसे अपने कर्मको नष्टकर 'वोसट्टचत्तदेहा' अर्थात् जिन्होंने भिन्न कर छोड़ दिया है देह, ऐसे होकर वे अनुत्तर अर्थात् जिससे आगे अन्य अवस्था नहीं है ऐसी निर्वाण अवस्था को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ:--जो तप द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर जबतक विहार करें तब तक अवस्थान रहें, पीछे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी सामग्रीरूप विधिके बलसे कर्म नष्टकर व्युत्सर्ग द्वारा शरीरको छोड़कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। यहाँ आशय ऐसा है कि जब निर्वाण को प्राप्त होते हैं तब लोक शिखर पर जाकर विराजते हैं, वहाँ गमन में एक समय लगता है. उस समय जंगम प्रतिमा कहते हैं। ऐसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसमें सम्यग्दर्शन प्रधान है। इस पाहडमें सम्यग्दर्शनके प्रधान पने का व्याख्यान किया है ।।३६ ।।
द्वादश तपे संयुक्त, निज कर्मो खपावी विधिबले, व्युत्सर्गथी तनने तजी, पाम्या अनुत्तर मोक्षने। ३६ ।
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