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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [३५ दर्शनपाहुड] अर्थ:--जीव विशुद्ध सम्यक्त्व को कल्याणकी परम्परा सहित पाते हैं इसलिये सम्यग्दर्शन रत्न है वह इस सुर-असुरोंसे भरे हुए लोकमें पूज्य है। भावार्थ:--विशुद्ध अर्थात् पच्चीस मलदोषोंसे रहित निरतिचार सन्थम्यक्त्वसे कल्याणकी परम्परा अर्थात् तीर्थंकर पद पाते हैं, इसीलिये यह सम्यक्त्व-रत्न लोकमें सब देव, दानव और मनुष्योंसे पूज्य होता है। तीर्थंकर प्रकृतिके बंधके कारण सोलहकारण भावना कही हैं उनमें पहली दर्शनविशुद्धि है वही प्रधान है, यही विनयादिक पंद्रह भावनाओंका कारण है, इसलिये सम्यग्दर्शन के ही प्रधानपना है।।३३ ।। अब कहते हैं कि जो उत्तम गोत्र सहित मनुष्यत्वको पाकर सम्यक्त्वकी प्राप्ति से मोक्ष पाते हैं यह सम्यक्त्व का महात्म्य है: लभ्रूण' य मणुयत्तं सहियं तह उत्तमेण गोत्तेण। लभ्रूण य सम्मतं अक्खयसोक्खं च लहदि मोक्खं च।। ३४।। लब्ध्वा च मनुजत्त्वं सहितं तथा उत्तमेन गोत्रेण। लब्ध्वा च सम्यक्त्वं अक्षयसुखं च मोक्षं च।। ३४।। अर्थ:--उत्तम गोत्र सहित मनुष्यपना प्रत्यक्ष प्राप्त करके और वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त करके अविनाशी सुखरूप केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, तथा उस सुख सहित मोक्ष प्राप्त करते हैं। भावार्थ:--यह सब सम्यक्त्वका महात्म्य है ।।३४ ।। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि -जो सम्यक्त्व के प्रभाव से मोक्ष प्राप्त करते हैं वे तत्काल ही प्राप्त करते हैं या कुछ अवस्थान भी रहते हैं ? उसके समाधानरूप गाथा कहते हैं: १. दटूण पाठान्तर। २. 'अक्खयसोक्खं लहदि मोक्खं च ' पाठान्तर । रे! गोत्र उत्तमथी सहित मनुजत्वने जीव पामीने, संप्राप्त करी सम्यक्त्व, अक्षय सौख्य ने मुक्ति लहे। ३४ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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