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दर्शनपाहुड]
[३३ उपकार करनेवालापना बताया है, इन दोनों ही कारणोंसे जगतमें वंदने पूजने योग्य हैं। इसलिये इसप्रकार भ्रम नहीं करना कि-तीर्थंकर कैसे पूज्य हैं, यह तीर्थंकर सर्वज्ञ वीतराग हैं। उनके समवसरणादिक विभूति रचकर इन्द्रादिक भक्तजन महिमा करते हैं। इनके कुछ प्रयोजन नहीं हैं, स्वयं दिगम्बरत्व को धारण करते हुए अंतरिक्ष तिष्ठते हैं ऐसा जानना ।।२९ ।।
आगे मोक्ष किससे होता है सो कहते हैं:
णाणेण दंसणेण व तवेण चरियेण संजमगुणेण। चउहिं पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो।।३०।।
ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण संयमगुणेन। चतुर्णामपि समायोगे मोक्ष: जिनशासने दृष्टः ।। ३०।।
अर्थ:--ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्र से इन चारोंका समायोग होने पर जो संयमगुण हो उससे जिन शासनमें मोक्ष होना कहा है ।।३०।।
आगे इन ज्ञान आदि के उत्तरोत्तर सारपना कहते हैं:
णाणं णरस्स सारो सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं। सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं।।३१।।
ज्ञानं नरस्य सार: सारः अपि नरस्य भवति सम्यक्त्वम्। सम्यक्त्वात् चरणं चरणात् भवति निर्वाणम्।।३१।।
अर्थ:--पहिले तो इस पुरुषके लिये ज्ञान सार है क्योंकि ज्ञानसे सब हेय-उपादेय जाने जाते हैं फिर उस पुरुषके लिये सम्यक्त्व निश्चय से सार है क्योंकि सम्यक्त्व बिना ज्ञान मिथ्या नाम पाता है, सम्यक्त्वसे चारित्र होता है क्योंकि सम्यक्त्व बिना चारित्र भी मिथ्या ही है, चारित्र से निर्वाण होता है।
संयम थकी, वा ज्ञान-दर्शन-चरण-तप छे चार जे; ओ चार केरा योगथी, मुक्ति कही जिनशासने। ३०।
रे! ज्ञान नरने सार छे, सम्यक्त्व नरने सार छे; सम्यक्त्वथी चारित्र ने चारित्रथी मुक्ति लहे। ३१ ।
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