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। अष्टपाहुड
वचनिकाकार की प्रशस्ति
इसप्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्यकृत गाथाबद्ध पाहुडग्रंथ है, इसमें ये पाहुड हैं, इनकी यह देशभाषावचनिका लिखी है। छह पाहुड की तो टीका टिप्पण है। इनमें टीका तो श्रुतसागर कृत है और टिप्पण पहिले किसी ओर ने किया है। इनमें कइ गाथा तथा अर्थ अन्य प्रकार हैं, मेरे विचार में आया उनका आश्रय भी लिया है और जैसा अर्थ मुझे प्रतिभाषित हुआ वैसा लिखा है। लिंगपाहुड और शीलपाहुड इन दोनों पाहुड की टीका टिप्पण मिली नहीं इसलिये गाथाका अर्थ जैसा प्रति भास में आया वैसा लिखा है।
श्री श्रुतसागरकृत टीका अष्टपाहुड की है, उसमें ग्रन्थान्तर की साक्षी आदि कथन बहुत है वह उस टीका की वचनिका नहीं है, गाथा का अर्थमात्र वचनिका कर भावार्थ में मेरी प्रतिभासमें आया उसके अनुसार अर्थ लिखा है। प्राकृत व्याकरण आदि का ज्ञान मेरे में विशेष नहीं है इसलिये कहीं व्याकरण से तथा आगम से शब्द और अर्थ अपभ्रंश हुआ होतो बुद्धिमान पंडित मूलग्रंथ विचार कर शुद्ध करके पढ़ना, मुझे अल्पबुद्धि जानकर हँसी मत करना, क्षमा करना, सत्पुरुषों का स्वभाव उत्तम होता है, दोष देखकर क्षमा ही करते हैं।
यहाँ कोई कहे---तुम्हारी बुद्धि अल्प है तो ऐसे महान ग्रन्थ की वचनिका क्यों की? उसको ऐसा कहना कि इसकाल में मेरे से भी मंस बुद्धि बहुत हैं, उनके समझने के लिये की है। इसमें सम्यग्दर्शन को दृढ़ करने का प्रधान रूप से वर्णन है, इसलिये अल्प बुद्धि भी वाँचे पढ़ें अर्थ का धारण करें तो उनके जिनमत का श्रद्धान दृढ़ हो। यह प्रयोजन जानकर जैसा अर्थ प्रतिभास में आया वैसा लिखा है ओर जो बड़े बुद्धिमान हैं वे मूल ग्रन्थ को पढ़ कर ही श्रद्धान दृढ़ करेंगे, मेरे कोई ख्याति लाभ पूजा का तो प्रयोजन है नहीं, धर्मानुराग से यह वचनिका लिखी है, इसलिये बुद्धिमानों के क्षमा ही करने योग्य है।
इस ग्रन्थ के गाथा की संख्या ऐसे है---प्रथम दर्शनपाहुड की गाथा ३६। सूत्रपाहुडकी गाथा २७। चारित्रपाहुड की गाथा ४५। बोधपाहुडकी गाथा ६१। भावपाहुडकी गाथा १६५ । मोक्षपाहुडकी गाथा १०६ । लिंगपाहुडकी गाथा २२। शीलपाहुडकी गाथा ४०। ऐसे पाहुड आठोंकी गाथाकी संख्या ४०२ हैं।
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