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________________ ___Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शीलपाहुड] से प्राप्त होता है, जिनागम का निरन्तर अभ्यास करना उत्तम है।। ३८।। ३८९ आगे अंतसमय में संल्लेखना कही है. उसमें दर्शन ज्ञान चारित्र तप इन चार आराधना का उपदेश है ये भी शील ही से प्रगट होते हैं, उसको प्रगट करके कहते हैं:-- सव्वगुण खीणकम्मा सुहदुक्खविवज्जिदा मणविसुद्धा। पप्फोडियकम्मरवा हवंति आराहणापयडा।।३९ ।। सर्वगुणक्षीणकर्माणः सुखदुःखविवर्जिताः मनोविशुद्धः। प्रस्फोटितकर्मरजसः भवंति आराधनाप्रकटाः।। ३९ ।। अर्थ:--सर्वगुण जो मूलगुण उत्तरगुणों से जिसमें कर्म क्षीण हो गये हैं, सुख-दुःख से रहित हैं, जिनमें मन विशुद्ध है और जिसमें कर्मरूप रज को उड़ा दी है ऐसी अराधना प्रगट होती है। भावार्थ:--पहिले तो सम्यग्दर्शन सहित मूलगुण उत्तरगुणों के द्वारा कर्मोंकी निर्जरा होने से कर्म की स्थिति अनुभाग क्षीण होती है, पीछे विषयों के द्वारा कुछ सुख-दुःख होता था उससे रहित होता है. पीछे ध्यान में स्थित होकर श्रेणी चढे तब उपयोग विशद्ध हो का उदय अव्यक्त हो तब सुख-दुःख की वेदना मिटे, पीछे मन विशुद्ध होकर क्षयोपशम ज्ञानके द्वारा कुछ ज्ञेय से ज्ञेयान्तर होनेका विकल्प होता है वह मिटकर एकत्ववितर्क अविचार नामका शुक्लध्यान बारहवें गुणस्थान के अन्त में होता है यह मनका विकल्प मिटकर विशुद्ध होना है। पीछे घातिकर्म का नाश होकर अनन्त चतुष्टय प्रगट होते हैं वह कर्मरज का उड़ना है, इसप्रकार आराधना की सम्पूर्णता प्रगट होना है। जो चरम शरीरी हैं उनके तो इसप्रकार ट होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है। अन्यके आराधना का एक देश होता है अंत में उसका आराधन करके स्वर्ग प्राप्त होता है, वहाँ सागरो पर्यन्त सुख भोग वहाँ से चय कर मनुष्य हो आराधन को संपूर्ण करके मोक्ष प्राप्त होता है, इसप्रकार जानना, यह जिनवचन का और शील का महात्म्य है।। ३९ ।।। आराधनापरिणत सरव गुणथी करे कृश कर्मने, सुखदुःख रहित मनशुद्ध ते क्षेपे करमरूप धूलने। ३९ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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