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शीलपाहुड]
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भावार्थ:---यहाँ भी जितेन्द्रिय और विषयविरक्तता ये विशेषण शील ही की प्रधानता दिखाते हैं।। ३५।।
आगे कहते हैं कि जो लावण्य और शील युक्त हैं वे मुनि प्रशंसा योग्य होते हैं:--
लावण्णसील कुसलो जम्ममहीरुहोजस्स सवणस्स। सो सीलो स महप्पा भमिज्ज गुणवित्थरं भविए।।३६ ।।
लावण्यशीलकुशल: जन्ममही रुहः यस्य श्रमणस्य। सः शीलः स महात्मा भ्रमेत गुणविस्तारः भव्ये।। ३६ ।।
अर्थ:--जिस मुनि का जन्मरूप वृक्ष लावण्य अर्थात् अन्य को प्रिय लगता है ऐसे सर्व अंग सुन्दर तथा मन वचन काय की चेष्टा सुन्दर और शील अर्थात् अंतरंग मिथ्यात्व विषय रहित परोपकारी स्वभाव, इन दोनों में प्रवीण निपुण हो वह शीलवान् है महात्मा है उसके गुणोंका विस्तार लोकमें भ्रमता है, फैलता है।
भावार्थ:--ऐसे मुनि के गुण लोक में विस्तार को प्राप्त होते हैं, सर्व लोक के प्रशंसा योग्य होते हैं, यहाँ भी शील ही कि महिमा जानना और वृक्ष का स्वरूप कहा, जैसे वृक्ष के शाखा, पत्र, पुष्प, फल सुन्दर हों और छायादि करके रागद्वेष रहित सब लोकका समान उपकार करे उस वृक्ष की महिमा सब लोग करते हैं; ऐसे ही मुनि भी ऐसा हो तो सबके द्वारा महिमा करने योग्य होता है।। ३६ ।।
आगे कहते हैं कि जो ऐसा हो वह जिनमार्ग में रत्नत्रय की प्राप्तिरूप बोधि को प्राप्त होता है:---
णाणं झाणं जोगो दंसणसुद्धीय 'वीरयायत्तं। सम्मत्तदंसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं।।३७।।
१ - मुद्रित सं० प्रतिमें ‘वीरियावत्तं' ऐसा पाठ है जिकी छाया 'वीर्यत्व' है।
जे श्रमण के जन्मतरु लावण्य-शील समृद्ध छे, ते शीलधर छे, छे महात्मा लोकमां गुण विस्तरे। ३६ ।
जे श्रमण के जन्मतरु लावण्य-शील समृद्ध छे, ते शीलधर छे, छे महात्मा लोकमां गुण विस्तरे। ३६ ।
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