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शीलपाहुड]
३८५ भावार्थ:--जिनसिद्धांत में ऐसे कहा है कि--तीसरी पृथ्वी से निकलकर तीर्थंकर होता है वह यह भी शील ही का महात्म्य है। वहाँ सम्यक्त्वसहित होकर विषयों से विरक्त हुआ भली भावना भावे तब नरक-वेदना भी अल्प हो जाती है और वहाँ से निकलकर अरहंतपद प्राप्त करके मोक्ष पाता है, ऐसा विषयों से विरक्तभाव वह शीलका ही महात्म्य जानो। सिद्धांत में इस प्रकार का कहा है कि सम्यग्दृष्टि के ज्ञान और वैराग्य की शक्ति नियम से होती है, वह वैराग्यशक्ति है वही शील का एकदेश है इसप्रकार जानना।। ३२।।
आगे इस कथन का संकोच करते हैं:---
एवं बहुप्पयारं जिणेहि पच्चक्खणाण दरसीहिं। सीलेण य मोक्खपयं अक्खातीदं य लोयणाणेहिं।।३३।।
एवं बहुप्रकारं जिनै: प्रत्यक्ष ज्ञानदर्शिभिः। शीलेन च मोक्षपदं अक्षातीतं च लोकज्ञानैः।। ३३ ।।
अर्थ:--एवं अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार तथा अन्य प्रकार [-बहुत प्रकार ] जिनके प्रत्यक्ष ज्ञान-दर्शन पाये जाते हैं और जिनके लोक-अलोक का ज्ञान है ऐसे जिनदेव ने कहा है कि शील से अक्षातीत---जिनमें इन्द्रियरहित अतीन्द्रिय ज्ञान सुख है ऐसा मोक्षपद होता है।
भावार्थ:---सर्वज्ञदेवने इसप्रकार कहा है कि शीलसे अतीन्द्रिय ज्ञान सुखरूप मोक्षपद प्राप्त होता है वह भव्यजीव इस शीलको अंगीकार करों, ऐसा उपदेश का आशय सूचित होता है; बहुत कहाँ तक कहें इतना ही बहुत प्रकार से कहा जानो।।३३।।
__ आगे कहते हैं कि इस शील से निर्वाण होता है, उसका बहुत प्रकार से वर्णन है वह कैसे ?:---
अत्यक्ष-शिवपद प्राप्ति आम घणा प्रकारे शीलथी प्रत्यक्ष दर्शनज्ञानधर लोकज्ञ जिनदेवे कही। ३३।
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