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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शीलपाहुड ३६५ कुछ राग-द्वेष कषाय परिणाम उत्पन्न होते हैं उनको कर्म का उदय जाने, उन भावों को त्यागने योग्य जाने, त्यागना चाहे ऐसी प्रकृति हो तब सम्यग्दर्शनरूप भाव कहते हैं, इस सम्यग्दर्शन भाव से ज्ञान भी सम्यक् नाम पाता है और पद के अनुसार चारित्र की प्रवृत्ति को सुशील कहते हैं, इसप्रकार कुशील सुशील शब्दका सामान्य अर्थ है। सामान्यरूप से विचारे तो ज्ञान ही कुशील है और ज्ञान ही सुशील है, इसलिये इसप्रकार कहा है कि ज्ञानके और शीलके विरोध नहीं है, जब संसार-प्रकृति पलट कर मोक्षसन्मुख प्रकृति हो तब सुशील कहते हैं, इसलिये ज्ञानमें और शील में विशेष नहीं कहा है, यदि ज्ञान में सुशील न आवे तो ज्ञानको इन्द्रियों के विषय नष्ट करते हैं, ज्ञान को अज्ञान करते हैं तब कुशील नाम पाता है। यहाँ कोई पूछे---गाथा में ज्ञान-अज्ञान का तथा सुशील-कुशीलका नाम तो नहीं कहा, ज्ञान और शील ऐसा ही कहा है, इसका समाधान---पहिले गाथा में ऐसी प्रतीज्ञा की है कि मैं शील के गुणों को कहूँगा अतः इस प्रकार जाना जाता है कि आचार्य के आशय में सुशील ही के कहने का प्रयोजन है, सुशील ही को शीलनाम से कहते हैं, शील बिना कुशील कहते हैं। यहाँ गुण शब्द उपकारवाचक लेना तथा विशेषवाचक लेना, शीलसे उपकार होता है तथा शीलके विशेष गुण हैं वह कहेंगे। इसप्रकार ज्ञानमें जो शील न आवे तो कुशील होता है, इन्द्रियों के विषयों से आसक्ति होती है तब वह ज्ञान नाम नहीं प्राप्त करता, इस प्रकार जानना चाहिये। व्यवहारमें शीलका अर्थ स्त्री-संसर्ग वर्जन करने का भी है, अतः विषय सेवन का ही निषेध है। पर द्रव्य मात्र का संसर्ग छोड़ना, आत्मामें लीन होना वह परमब्रह्मचर्य है। इसप्रकार ये शील ही के नामान्तर जानना।। २।। आगे कहते हैं कि ज्ञान होने पर भी ज्ञान की भावना करना और विषयों से विरक्त होना कठिन है [ दुर्लभ है] :---- Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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