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[अष्टपाहुड
अब कहते हैं कि --अंतरंगसम्यग्दर्शन बिना बाह्यचारित्रसे निर्वाण नहीं होता :---
दंसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं। सिझंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिज्झंति।।३।।
दर्शनभ्रष्टाः भ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम। सिध्यन्ति चारित्र भ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टा: न सिध्यन्ति।।३।।
अर्थ:---जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं; जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण नहीं होता; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे तो सिद्धि को प्राप्त होते हैं
ो दर्शन भ्रष्ट हैं वे सिद्धिको प्राप्त नहीं होते।
भावार्थ:---जो जिनमत की श्रद्धा से भ्रष्ट हैं उन्हें भ्रष्ट कहते हैं; और जो श्रद्धा से भ्रष्ट नहीं हैं, किन्तु कदाचित् उदयसे चारित्रभ्रष्ट हुये हैं उन्हें भ्रष्ट नहीं कहते; क्योंकि जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती; जो चारित्र से भ्रष्ट होते हैं और श्रद्धान दृढ़ रहते हैं उनके तो शीघ्र ही पुन: चारित्र का ग्रहण होता है, और मोक्ष होता है। तथा दर्शन-श्रद्धा से भ्रष्ट होय उसके फिर चारित्र का ग्रहण फिर कठिन होता है इसलिये निर्वाण की प्राप्ति दुर्लभ होती है। जैसे -वृक्ष की शाखा आदि कट जाये और जड़ बनी रहे तो शाखा आदि शीघ्र ही पुनः उग आयेंगे और फल लगेंगे, किन्तु जड़ उखड़ जाने पर शाखा आदि कैसे होंगे ? उसी प्रकार धर्मका मूल दर्शन जानना ।।३।।
अब, जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं और शास्त्रोंको अनेक प्रकार से जानते हैं तथापि संसारमें भटकते हैं; --ऐसे ज्ञानसे भी दर्शन को अधिक कहते हैं :----
दृग्भ्रष्ट जीवो भ्रष्ट छे, दृग्भ्रष्टनो नहि मोक्ष छे; चारित्रभ्रष्ट मुकाय छे, दृग्भ्रष्ट नहि मुक्ति लहे। ३।
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