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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३५२] । अष्टपाहुड दसणणाणचरित्ते उपहाणे जइ ण लिंगरुवेण। अट्ट झायदि झाणं अणंत संसारिओ होदि।।८।। दर्शनज्ञान चारित्राणि उपधानानि यदि न लिंगरुपेण। आर्तं ध्यायाति ध्यानं अनंतसंसारिक: भवति।।८।। अर्थ:--यदि लिंगरूप करके दर्शन ज्ञान चारित्र को तो उपधानरूप नहीं किये [-धारण नहीं किये ] और आर्त्तध्यान को ध्याता है तो ऐसा लिंगी अनंत संसारी होता है। भावार्थ:--लिंग धारण करके दर्शन ज्ञान चारित्रका सेवन करना था वह तो नहीं किया और परिग्रह कुटुम्ब आदि विषयोंका परिग्रह छोड़ा उसकी फिर चिंता करके आर्तध्यान-ध्याने लगा तब अनंत संसारी क्यों न हो? इसका तात्पर्य है कि---सम्यग्दर्शनादि रूप भाव तो पहिले हुए नहीं और कुछ कारण पाकर लिंग धारण कर लिया, उसकी अवधि क्या ? पहिले भाव शुद्ध करके लिंग धारण करना युक्त है।। ८ ।। __ आगे कहते हैं कि यदि भाव शुद्धिके बिना गृहस्थपद छोड़े तो यह प्रवृत्ति होती है:--- जो जोडेदि विवाह किसिकम्मवणिज्जजीवद्यादं च। वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरुवेण।।९।। यः योजयति विवाहं कृषिकर्मवाणिज्यजीवघातं च। व्रजति नरकं पापः कुर्वाण: लिंगिरुपेण।।९।। अर्थ:--जो गृहस्थोंके परस्पर विवाह जोड़ता है--सम्बन्ध कराता है, कृषिकर्म खेती बहाना किसान का कार्य, वाणिज्य व्यापार अर्थात् वैश्यका कार्य और जीवघात अर्थात् वैद्यकर्म के लिये जीवघात करना अथवा धीवरादिका कार्य, इन कार्यों को करता है वह लिंगरूप धारण करके ऐसे पापकार्य करता हुआ पापी नरकको प्राप्त होता है। भावार्थ:--गृहस्थपद छोड़कर शुद्धभाव बिना लिंगी हुआ था, इसकी भावकी ज्यां लिंग रूपे ज्ञानदर्शन चरण- धारण नहीं, ने ध्यान ध्यावे आर्त, तेह अनंत संसारी मुनि। ८। जोडे विवाह, करे कृषि-व्यापार-जीवविघात जे, लिंगीरूपे करतो थको पापी नरकगामी बने। ९। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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