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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] [३४५ इनकी अज्ञानुसार प्रवर्तनसे परंपरासे संसार से निवृत्ति भी होती है, इसलिये ये पाँच परमेष्ठी सब जीवों के उपकारी परमगुरु हैं, सब संसारी जीवों से पूज्य हैं। इनके सिवाय अन्य संसारी जीव रागद्वेष मोहादि विकारों से मलिन हैं, ये पूज्य नहीं है, इनके महानपना, गुरुपना, पूज्यपना नहीं है, आप ही कर्मोंके वश मलिन हैं तब अन्यका पाप इनसे कैसे कटे ? इसप्रकार जिनमत में इन पंच परमेष्ठी का महानपना प्रसिद्ध है और न्यायके बल से भी ऐसा ही सिद्ध होता है, क्योंकि जो संसार के भ्रमण से रहित हों वे ही अन्य के संसारका भ्रमण मिटाने को कारण होते हैं। जैसे जिसके पास धनादि वस्तु हो वही अन्यको धनादिक दे और आप दरिद्री हो तब अन्य की दरिद्रता कैसे मेटे. इसप्रकार जानना। जिनको संसार के दुख मेटने हों और संसारभ्रमणके दुःखरूप जन्म-मरण से रहित होना हो वे अरहंतादिक पंच परमेष्ठी का नाम मंत्र जपो, इनके स्वरूप का दर्शन, स्मरण, ध्यान करो, इससे शुभ परिणाम होकर पापका नाश होता है, सब विध्न टलते हैं, परंपरा से संसारका भ्रमण मिटता है, कर्मोंका नाश होकर मुक्तिकी प्राप्ति होती है, ऐसा जिनमतका उपदेश है अतः भव्य जीवों के अंगीकार करने योग्य है। यहाँ कोई कहे--- अन्यमत में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदिक इष्टदेव मानते हैं उनके भी विध्न टलते देखे जाते हैं तथा उनके मत में राजादि बड़े-बड़े पुरुष देखे जाते हैं, उनके भी वे इष्ट विध्नादिक को मेटानेवाले हैं ऐसे ही तुम्हारे भी कहते हो, ऐसा क्यों कहते हो कि यह पँच परमेष्ठी ही प्रधान है अन्य नहीं ? उसको कहते हैं, हे भाई! जीवों के दुःख तो संसारभ्रमण का है और संसार भ्रमण के कारण राग द्वेष मोहादि परिणाम हैं तथा रागादिक वर्तमान में आकुलतामयी दुःखस्वरूप हैं, इसलिये ये ब्रह्मादिक इष्ट देव कहे ये तो रागादिक तथा कामक्रोधादि युक्त हैं, अज्ञानतप के फल से कई जीव सब लोक में चमत्कार सहित राजादिक बड़ा पद पाते हैं, उनको लोग बड़ा मानकर ब्रह्मादिक भगवान कहने लग जाते हैं और कहते हैं कि यह परमेश्वर ब्रह्माका अवतार है, तो ऐसे मानने से तो कुछ मोक्षमार्गी तथा मोक्षरूप होता नहीं है, संसारी ही रहता है। ऐसे ही अन्यदेव सब पदवाले जानने, वे आप ही रागादिक से दुःखरूप हैं, जन्म-मरण सहित हैं वे परका-संसारका दुःख कैसे मेटेंगे? उनके मतमें विध्नका टलना और राजादिक बड़े पुरुष होते कहे जाते हैं, वहाँ तो उन जीवों के पहिले कुछ शुभ कर्म बंधे थे उनका फल है। पूर्वजन्म में किंचित् शुभ परिणाम किया था इसलिये पुण्यकर्म बँधा था, उसके उदयसे कुछ विध्न टलते हैं और राजादिक पद पाते हैं, वह तो पहिले Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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