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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] [३४३ दोहा वंदूं मंगलरूप जे अर मंगल करनार पंच परम गुरु पद कमल ग्रंथ अंत हतिकार।।२।। यहाँ कोई पूछे --कि ग्रंथोंमें जहाँ तहाँ, पंच णमोकार की महिमा बहुत लिखी है, मंगलकार्य में विध्नको दूर करने के लिये इसे ही प्रधान कहा है और इसमें पंच-परमेष्ठी को नमस्कार है वह पंचपरमेष्ठी की प्रधानता हुई, पंचपरमेष्ठी को परम गुरु कहे इसमें इसी मंत्र की महिमा तथा मंगलरूपपना और इससे विध्न का निवारण, पंच-परमेष्ठी के प्रधानपना और गुरुपना तथा नमस्कार करने योग्यपना कैसे है ? वह कहो। इसके समाधानरूप कुछ लिखते हैं:---प्रथम तो पंचणमोकार मंत्र है, इसके पैंतीस अक्षर हैं, ये मंत्र के बीजाक्षर हैं तथा इनका योग सब मंत्रोंसे प्रधान है, इन अक्षरोंका गुरु आम्नाय से शुद्ध उच्चारण हो तथा साधन यथार्थ हो तब ये अक्षर कार्य में विध्न के दूर करने में कारण हैं इसलिये मंगलरूप हैं। 'म' अर्थात् पाप को गाले उसे मंगल कहते हैं तथा ‘मंग' अर्थात् सुख को लावे, दे, उसको मंगल कहते हैं, इससे दोनों कार्य होते हैं। उच्चारण के विध्न टलते हैं, अर्थ का विचार करने पर सुख होता है, इसी से इसको मंत्रों में प्रधान कहा है, इसप्रकार तो मंत्र के आश्रय महिमा है। पंचपरमेष्ठी को नमस्कार इसमें है---वे पंचपरमेष्ठी अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधु ये हैं, इनका स्वरूप तो ग्रंथों में प्रसिद्ध है, तो भी कुछ लिखते हैं:---यह अनादिनिधन अकृत्रिम सर्वज्ञ की परम्परा से आगम में कहा है ऐसा षद्रव्य स्वरूप लोक है, जिसमें जीवद्रव्य अनंतानंत हैं और पुद्गल द्रव्य इसके अनंतानंत गुणे हैं, एक-एक धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य हैं और कालद्रव्य असंख्यात द्रव्य हैं। जीव तो दर्शन-ज्ञानमयी चेतना स्वरूप है। अजीव पाँच हैं ये चेतना रहित जड़ हैं--धमै, अधर्म , आकाश और काल ये चार द्रव्य तो जैसे हैं वैसे ही रहते हैं, इनके विकार परिणति नहीं है, जीव पुद्गल द्रव्य के परस्पर निमित्त - नैमित्तिकभाव से विभाव परिणति है, इसमें भी पुद्गल तो जड़ है, इसके विभाव परणिति का दुःख-सुख का वेदन नहीं है और जीव चेतन है इसके दुःख – सुख का वेदन है। जीव अनंतानंत हैं इसमें कई तो संसारी हैं, कई संसार से निवृत्त होकर सिद्ध हो चुके हैं। संसारी जीवों में कई तो अभव्य हैं तथा अभव्य के समान हैं ये दोनों जाति के संसार के निवृत्त कभी नहीं होते हैं, इसके संसार अनादि निधन है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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