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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] [३४१ जब *काललब्धिके निमित्त से जीवाजीव पदार्थों का ज्ञान-श्रद्धान होने पर सम्यक्त्व होता है तब इस जीव को अपना और परका, हित-अहित का तथा हेय-उपादेय का जानना होता है तब आत्मा की भावना होती है तब अविरत नाम चौथा गुणस्थान होता है। जब एकदेश परद्रव्य से निवृत्ति का परिणाम होता है तब जो एकदेश चारित्ररूप पाँचवाँ गुणस्थान होता है उसको श्रावक पद कहते हैं। सर्वदेश परद्रव्य से निवृत्तिरूप परिणाम हो तब सकलचारित्ररूप छट्ठा गुणस्थान होता है, इसमें कुछ संज्वलन चारित्रमोह के तीव्र उदय से स्वरूप के साधन में प्रमाद होता है, इसलिये इसका नाम प्रमत्त है, यहाँ से लगाकर ऊपरके गुणस्थान वालों को साधु कहते हैं। [* स्वसन्मुखतारूप निज परिणाम की प्राप्ति का नाम ही उपादानरूप निश्चयकालब्धि है, वह हो तो उस समय बाह्य द्रव्य - क्षेत्र - कालादि चित सामग्री निमित्त है---उपचार कारण है, अन्यथा उपचार भी नहीं।] जब संज्वलन चारित्रमोहका मंद उदय होता है तब प्रमादका अभाव होकर स्वरूपके साधने में बड़ा उद्यम होता है तब इसका नाम अप्रमत्त ऐसा सातवाँ गणस्थान है. धर्मध्यान की पूर्णता है। जब इस गुणस्थान में स्वरूप में लीन हो तब सातिशय अप्रमत्त होता है। श्रेणी का प्रारम्भ करता है, तब इससे ऊपर चारित्रमोहका अव्यक्त उदयरूप अपूर्वकरण, अनिवृत्त्किरण, सूक्ष्मसांपराय नाम धारक ये तीन गुणस्थान होते हैं। चौथे से लगाकर दसवें सूक्ष्मसांपराय तक कर्म की निर्जरा विशेषरूप से गुणश्रेणीरूप होती है। इससे ऊपर मोहकर्म के आभावरूप ग्यारहवाँ, बारहवाँ, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय गुणस्थान होते हैं। इसके पीछे शेष तीन घातिया कर्मोंका नाश कर अनंतचतुष्टय प्रगट होकर अरहंत होता है यह संयोगी जिन नाम गुणस्थान है, यहाँ योग की प्रवृत्ति है। योगोंका निरोधकर अयोगी जिन नामका चौदहवाँ गुणस्थान होता है, यहाँ अघातिया कर्मों का भी नाश करके लगता ही अनंतर समयमें निर्वाण पद को प्राप्त होता है, यहाँ संसार के अभावसे मोक्ष नाम पाता है। इसप्रकार सब कर्मों का अभावरूप मोक्ष होता है, इसके कारण सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र कहे, इनकी प्रवृत्ति चौथे गुणस्थानसे सम्यक्त्व प्रगट होने पर एकदेश होती है, यहाँ से लगाकर आगे जैसे जैसे कर्मका अभाव होता है वैसे वैसे सम्यग्दर्शन Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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