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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड] [३३७ वैराग्यपर: साधु: परद्रव्यपराङ्मुखश्च यः भवति। संसारसुखविरक्तः स्वकशुद्धसुखेषु अनुरक्तः।। १०१।। गुणगणविभूषितांगः हेयोपादेयनिश्चितः साधुः। ध्यानाध्ययने सुरतः सः प्राप्नोति उत्तमं स्थानम्।। १०२।। अर्थ:--ऐसा साधु उत्तम स्थान जो मोक्ष उसकी प्राप्ति करता है अर्थात् जो साधु वैराग्य तत्पर हो संसार-देह-भोगोंसे पहिले विरक्त होकर मुनि हुआ उसी भावना युक्त हो, परद्रव्यसे पराङ्मुख हो, जैसे वैराग्य हुआ वैसे ही परद्रव्यका त्याग उससे पराङ्मुख रहे, संसार संबंधी इन्द्रियोंसे द्वारा विषयों से सुखसा होता है उससे विरक्त हो, अपने आत्मीक शुद्ध अर्थात् कषायोंके क्षोभ से रहित निराकुल, शांतभावरूप ज्ञानानन्द में अनुरक्त हो, लीन हो, बारंबार उसी की भावना रहे। जिसका आत्मप्रदेशरूप अंग गुणसे विभूषित हो, जो मूलगुण, उत्तरगुणों से आत्माको अलंकृत-शोभायमान किये हो, जिसके हेय-उपादेय तत्त्व का निश्चय हो, निज आत्मद्रव्य तो उपादेय है और ऐसा जिसके निश्चय हो कि---अन्य परद्रव्यके निमित्त से हुए अपने विकारभाव ये सब हेय हैं। साधु होकर आत्माके स्वभाव के साधने में भली भाँति तत्पर हो, धर्म-शुक्लध्यान और अध्यात्मशास्त्रों को पढ़कर ज्ञानकी भावना में तत्पर हो, सुरत हो, भले प्रकार लीन हो। ऐसा साधु उत्तमस्थान जो लोकशिखर पर सिद्धक्षेत्र तथा मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानोंसे परे शुद्धस्वभावरूप मोक्षस्थान को पाता है। भावार्थ:--मोक्षके साधने के ये उपाय हैं अन्य कुछ नहीं हैं।। १०१-१०२।। आगे आचार्य कहते हैं कि सर्वसे उत्तम पदार्थ शुद्ध आत्मा है, वह देहमें ही रह रहा है उसको जानो: णविएहिं जं णविज्जइ झाइज्जइ झाइएहिं अणवरयं। थुव्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह।। १०३।। नतैः यत् नम्यते ध्यायते ध्यातैः अनवरतम्। स्तूयमानैः स्तूयते देहस्थं किमपि तत् जानीत।। १०३।। प्रणमे प्रणत जन, ध्यात जन ध्यावे निरंतर जेहने, तुं जाण तत्त्व तनस्थ ते, जे स्तवनप्राप्त जनो स्तवे। १०३ । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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