________________
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
१२]
[अष्टपाहुड योग्य हैं। अन्यलिंगी-वेषी व्रतादिक से रहित परिग्रहवान, विषयों में आसक्त गुरु नाम धारण करते हैं वे वंदन योग्य नहीं हैं।
इस पंचमकाल में जिनमत में भी भेषी हुए हैं। वे श्वेताम्बर, यापनीयसंघ, गोपुच्छपिच्छसंघ, नि:पिच्छसंघ, द्राविड़संघ आदि अनेक हुये हैं; यह सब वन्दन योग्य नहीं हैं। मूलसंघ नग्नदिगम्बर, अट्ठाईस मूलगुणोंके धारक, दयाके और शौचके उपकरण-मयूरपिच्छक, कमण्डल धारण करने वाले, यथोक्त विधि आहार करने वाले गुरु वंदन योग्य हैं, क्योंकि जब तीर्थंकर देव दीक्षा लेते हैं तब ऐसा ही रूप धारण करते हैं अन्य भेष धारण नहीं करते; इसी को जिनदर्शन कहते हैं।
धर्म उसे कहते हैं जो जीव को संसार के दुःखरूप नीच पदसे मोक्षके सुखरूप उच्च पद में धारण करे; -ऐसा धर्म मुनि-श्रावकके भेद से, दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक एकदेशसर्वदेशरूप निश्चय–व्यवहार द्वारा दो प्रकार कहा है; उसका मूल सम्यग्दर्शन है; उसके बिना धर्म की उत्पत्ति नहीं होती। इसप्रकार देव-गुरु-धर्म तथा लोक में यथार्थ दृष्टि हो और मूढ़ता न हो सो अमूढ़दृष्टि अङ्ग है ।।४।।
अपने आत्मा की शक्तिको बढ़ाना सो उपबृंहण अङ्ग है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को अपने पुरुषार्थ द्वारा बढ़ाना ही उपबृंहण है। इसे उपगुहन भी कहते हैं। उसका ऐसा अर्थ जानना चाहिये कि जिनमार्ग स्वयं सिद्ध है; उसमें बालकके तथा असमर्थ जन के आश्रय से जो न्यूनता हो उसे अपनी बुद्धि से गुप्त कर दूर ही करे वह उपगूहन अङ्ग है ।।५।।
जो धर्म से च्युत होता हो उसे दृढ़ करना सो स्थितिकरण अङ्ग है। स्वयं कर्म उदय के वश होकर कदाचित् श्रद्धान से तथा क्रिया-आचार से च्युत होता हो तो अपने को पुरुषार्थ पूर्वक पुन: श्रद्धान में दृढ़ करे, उसीप्रकार अन्य कोई धर्मात्मा धर्म से च्युत हो तो उसे उपदेशादिक द्वारा स्थापित करे----वह स्थितिकरण अङ्ग है ।।६।।
अरिहंत, सिद्ध, उनके बिम्ब, चैत्यालय, चतुर्विध संघ और शास्त्र में दासत्व हो -जैसे स्वामी का भृत्य दास होता है तदनुसार -वह वात्सल्य अङ्ग है। धर्म के स्थानोंको पर उपसर्गादि आयें उन्हें अपनी शक्ति अनुसार दूर करें, अपने शक्ति को न छिपायें; -यह सब धर्म में अति प्रीति हो तब होता है ।।७।।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com