________________
Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
मोक्षपाहुड]
[३३३
सम्यक्त्वे गुण मिथ्यात्वे दोषः मनसा परिभाव्य तत् कुरु। यत् ते मनसे रोचते किं बहुना प्रलपितेन तु।। ९६ ।।
अर्थ:--हे भव्य! ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वके गुण और मिथ्यात्व के दोषों की अपने मनसे भावना कर और जो अपने मन को रुचे-प्रिय लगे वह कर, बहुत प्रलापरूप कहने से क्या साध्य है ? इसप्रकार आचार्य ने उपदेश दिया है।
भावार्थ:--इसप्रकार आचार्य ने कहा है कि बहुत कहने से क्या ? सम्यकत्व-मिथ्यात्वके गण-दोष पर्वोक्त जानकर जो मनमें रुचे. वह करो। यहाँ उपदेशका आशय मिथ्यात्व को छोड़ो सम्यक्त्वको ग्रहण करो, इससे संसारका दुःख मेटकर मोक्ष पाओ।। ९६ ।।
आगे कहते हैं कि यदि मिथ्यात्वभाव नहीं छोड़ा तब बाह्य भेष से कुछ लाभ नहीं है:--
बाहिरसंगविमुक्को ण वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो। किं तस्य ठाणमउणं ण वि जाणादि अप्पसमभावं ।। ९७।।
बहि: संगविमुक्त: नापि मुक्त: मिथ्याभावेन निपँथः। किं तस्य स्थानमौनं न अपि जानाति आत्मसमभावं ।। ९७।।
अर्थ:--जो बाह्य परिग्रह रहित और मिथ्याभावसहित निर्ग्रन्थ भेष धारण किया है वह परिग्रह रहित नहीं है, उसके ठाण अर्थात् खड़े होकर कायोत्सर्ग करने से क्या साध्य है ? और मौन धारण करने से क्या साध्य है ? क्योंकि आत्माका समभाव जो वीतराग-परिणाम उसको नहीं जानता है।
भावार्थ:--आत्मा के शद्ध स्वभावको जानकर सम्यग्दष्टि होता है। और जो मिथ्याभाव सहित परिग्रह छोड़कर निपँथ भी हो गया है, कायोत्सर्ग करना, मौन धारण करना इत्यादि बाह्य क्रियायें करता है तो उसकी क्रिया मोक्षमार्ग में सराहने
१ पाठान्तरः -- अप्पसभावं। २ पाठान्तरः -- आत्मस्वभावं।
निग्रंथ, बाह्य असंग, पण नहि त्यक्त मिथ्याभाव ज्यां, जाणे न ते समभाव निज; शं स्थान-मौन करे तिहां? ९७।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com