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३२८]
। अष्टपाहुड
किं बहुना भणितेन ये सिद्धाः नरवराः गते काले। सेत्स्यंति येऽपि भव्याः तज्जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम्।। ८८।।
अर्थ:--आचार्य कहते हैं कि---बहुत कहने से क्या साध्य है, जो नरप्रधान अतीत कालमें सिद्ध हए हैं और आगामी काल में सिद्ध होंगे वह सम्यक्त्वका महात्म्य जानो।
भावार्थ:--इस सम्यक्त्वका ऐसा महात्म्य है कि जो अष्टकर्मों का नाशकर मुक्ति प्राप्त अतीतकाल में हुए है तथा आगामी होंगे वे इस सम्यक्त्वसे ही हुए हैं और होंगे, इसलिये आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या? यह संक्षेप से कहा जानो कि---मुक्ति का प्रधान कारण यह सम्यक्त्व ही है। ऐसा मत जानो कि गृहस्थके क्या धर्म है, यह सम्यक्त्व धर्म ऐसा है कि सब धर्मों के अंगों को सफल करता है।। ८८ ।।
आगे कहते हैं कि जो निरन्तर सम्यक्त्वका पालन करते हैं उनको धन्य है:---
ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया। सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं।। ८९ ।।
ते धन्याः सुकृतार्थाः ते शूराः तेऽपि पंडिता मनुजाः। सम्यक्त्वं सिद्धिकरं स्वप्नेऽपि न मलिनितं यैः।। ८९ ।।
अर्थ:--जिन पुरुषों ने मुक्तिको करनेवाले सम्यक्त्व को स्वप्न अवस्था में भी मलिन नहीं किया, अतीचार नहीं लगाया उन पुरुषोंको धन्य है, वे ही मनुष्य हैं, वे ही भले कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंडित हैं।
भावार्थ:--लोक में कुछ दानादिक करें उनको धन्य कहते हैं तथा विवाहादिक यज्ञादिक करते हैं उनको कृतार्थ कहते हैं, युद्धमें पीछा न लौटे उसको शूरवीर कहते हैं, बहुत शास्त्र पढ़े उसको पंडित कहते हैं। ये सब कहनेके हैं; जो मोक्ष के कारण सम्यक्त्वको मलिन नहीं करते हैं, निरतिचार पालते हैं उनको धन्य है, वे ही कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंडित हैं, वे ही मनुष्य हैं, इसके बिना मनुष्य पशु समान है, इस प्रकार सम्यक्त्वका माहात्म्य कहा।।
आगे शिष्य पूछता है कि सम्यक्त्व कैसा है ? उसका समाधान करने के लिये इस सम्यक्त्वके बाह्य चिन्ह बताते हैं:---
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नर धन्य ने, सुकृतार्थ ते, पंडित अने शूरवीर ते, स्वप्नेय मलिन कर्यु न जेणे सिद्धिकर सम्यकत्वने। ८९ ।
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