SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 346
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३२२] । अष्टपाहुड ये पंचचेलसक्ताः ग्रंथग्राहिण: याचनाशीलाः। अधः कर्मणि रताः ते त्यक्ताः मोक्षमार्गे।। ७९ ।। अर्थ:--पंच आदि प्रकाके चले अर्थात् वस्त्रोंमें आसक्त हैं, अंडज, कर्पासज, वल्कल, चर्मज और रोमज---इसप्रकार वस्त्रोंसे किसी एक वस्त्रको ग्रहण करते हैं. ग्रन्थग्राही अर्था परिग्रहके ग्रहण करने वाले हैं, याचनाशील अर्थात् मांगने का ही जिनका स्वभाव है और अधःकर्म अर्थात् पापकर्म में रत हैं, सदोष आहार करते हैं वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं। भावार्थ:--यहाँ आशय ऐसा है कि पहले तो निग्रर्थं दिगम्बर मुनि हो गये थे, पीछे कालदोष का विचार कर चारित्र पालने में असमर्थ हो निग्रंथ लिंगसे भ्रष्ट होकर वस्त्रादिक अंगीकार कर लिये, परिग्रह रखने लगे, याचना करने लगे, अधःकर्म औद्देशिक आहार करने लगे उनका निषेध है वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं।पहिले तो भद्रबाहुस्वामी तक निग्रर्थं थे। पीछे दर्भिक्षकाल में भ्रष्ट होकर जो अर्द्धफालक कहलाने लगे उनमें से श्वेताम्बर हए. इन्होंने इस भेष को पुष्ट करने के लिये सूत्र बनाये, इनमें कई काल्पित आचरण तथा इसनी साधक कथायें लिखी। इसके सिवाय अन्य भी कई भेष बदले, इसप्रकार कालदोषसे भ्रष्ट लोगोंका संप्रदाय चल रहा है यह मोक्षमार्ग नहीं है, इसप्रकार बताया है। इसलिये इन भ्रष्ट लोगोंको देखकर ऐसा भी मोक्षमार्ग है, --ऐसा श्रद्धान न करना।। ७९ ।। आगे कहते हैं कि मोक्षमार्गी तो ऐसे मुनि होते हैं:--- णिग्गंथमोहमुक्का बावीसपरीसहा जियकसाया। पावारंभविमुक्का ते गह्यिा मोक्खमग्गम्मि।।८०।। निग्रंथाः मोहमुक्ताः द्वाविंशतिपरीषहाः जितकषायाः। पापारंभविमुक्ताः ते गृहीताः मोक्षमार्गे।। ८०।। अर्थ:--जो मुनि निग्रंथ हैं, परिग्रह रहित हैं, मोह रहित हैं, जिनके किसी भी परद्रव्य से ममत्वभाव नहीं है, जो बाईस परीषहोंको सहते हैं, जिन्होंने क्रोधादि कषायों को जीत लिया है और पापारंभ से रहित हैं, गृहस्थके करने योग्य आरंभादिक पापोंमें नहीं प्रवर्तते हैं--ऐसे मुनियोंको मोक्षमार्ग में ग्रहण किया है अर्थात् माने हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समंतभद्राचार्यने भी कहा है कि-- निर्मोह, विजितकषाय, बावीश-परिषही, निग्रंथ छे, छे मुक्त पापारंभथी, ते मोक्षमार्गे गृहीत छ। ८०। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy