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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्षपाहुड ] रत है, आसक्त है, इसलिये कहते हैं कि अभी ध्यानका काल नहीं है। भावार्थ:--जिसको इन्द्रियोंके सुख ही प्रिय लगते हैं और जीवाजीव पदार्थके श्रद्धानज्ञान से रहित है, वह इसप्रकार कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि इसप्रकार कहने वाला अभव्य है इसको मोक्ष नहीं होगा ।। ७४ ।। जो ऐसा मानता है- ---कहाता है कि अभी ध्यान का काल नहीं, तो उसने पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्तिका स्वरूप भी नहीं जाना:--- पंचसु महव्वेदेसु य पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । जो मूढो अण्णाणीण हु कालो भणइ झाणस्स ।। ७५ ।। पंचसु महाव्रतेषु च पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिसु । य: मूढः अज्ञानी न स्फुटं कालः भणिति ध्यानस्य ।। ७५ ।। अर्थ:- - जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति इनमें मूढ़ है, अज्ञानी है अर्थात् इनका स्वरूप नहीं जानता है और चारित्रमोह के तीव्र उदय से इनको पाल नहीं सकता है, वह इसप्रकार कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है ।। ७५ ।। आगे कहते हैं कि अभी इस पंचमकाल में धर्मध्यान होता है, यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है: भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स। तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी ।। ७६ ।। भरते दुःषमकाले धर्मध्यानं भवति साधोः। तदात्म स्वभावस्थिते न हि मन्यते सोऽपि अज्ञानी।। ७६ ।। अर्थ:: -- इस भरतक्षेत्र में दुःषम काल [ ३१९ - पंचमकाल में साधु मुनि के धर्मध्यान होता है गुप्ति, पंचसमिति, पंच महाव्रते जे मूढ छे, ते मूढ अज्ञ कहे अरे ! - नहि ध्याननो आ काळ छे ।' ७५ । भरते दुषमकालेय धर्मध्यान मुनिने होय छे; ते होय छे आत्मस्थने; माने न ते अज्ञानी छे । ७६ । Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008211
Book TitleAshtapahuda
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorMahendramuni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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